मंत्र साधना mantra sadhana

जय श्री राधे राधे

मंत्र साधना का प्रभाव -:

वेद शास्त्र पुराण आदि भारतीय ग्रंथों में मंत्र उपासना के द्वारा इस लोक और परलोक के सुख प्राप्त करने के प्रसंग पद पद पर आए हैं राजा विक्रमादित्य के समय तक जब लोगों पर किसी प्रकार का संकट भय विपत्ति आती अथवा सुख उन्नति स्वर्ग  या मोक्ष की अभिलाषा पूर्ण करने
की उत्सुकता होती तो लोग मंत्र उपासना का ही आश्रय ग्रहण करके संकट विपत्ति से छूटते और महान सत कार्यों में सफलता प्राप्त करते थे साधारण मनुष्य
 की बात छोड़िए साक्षात मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र जी जैसे सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान भी जब राक्षस राज रावण को दंड देने के लिए लंका पर चढ़ाई कर रहे थे उस समय कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिए महर्षि अगस्त्य ने उनको आदित्य हृदय का उपदेश किया और उसकी उपासना से भगवान श्री रामचंद्र जी रावण का संहार करके विजय बने !,

दुर्योधन के छल कपट के शिकार होकर धर्मराज युधिष्ठिर जब वनवास करने लगे तब धर्मराज के रोकने पर भी हजारों धर्मात्मा ब्राह्मण उनके साथ वन में निवास करने लगे परंतु वन के उस दुख प्रद काल में ब्राह्मणों के भोजन पोषण आदि के लिए  युधिष्ठिर के पास कुछ भी नहीं था तब वे बड़े संकोच में पढ़कर चिंता करने लगे उस समय उनके पुरोहित धौम्य ऋषि ने विषाद ग्रस्त धर्मराज को सूर्य नारायण का मंत्र बताकर उसका अनुष्ठान करने की विधि बतलाई सूर्य मंत्र की उपासना से तत्काल भगवान सूर्यनारायण प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्होंने महाराज युधिष्ठिर को एक अक्षय पात्र दिया उस अक्षय पात्र में से सती द्रोपती हजारों ब्राह्मणों तथा अतिथियों को भोजन करवाकर अंत में स्वयं भोजन करती और अक्षय पात्र को धोकर रख देती जब तक वह ऐसा नहीं करती वह पात्र का कभी समाप्त नहीं होता था !


 अपनी माता केकई के अपराध से भगवान श्रीराम को बिना ही अपराध वन में जाना पड़ा यह अत्यंत अनुचित बात हुई और केवल मेरे ही कारण हुई ऐसा मानकर भरत जी श्री रामचंद्र जी को मना कर और उनसे क्षमा प्रार्थना करके वापस लौटा‌ने को वन में गए अयोध्या की सारी प्रजा प्रभु श्री रामचंद्र जी को अपना सर्वस्व मानती थी अतः भरत जी के साथ हो गई रास्ते में प्रयाग पहुंचते-पहुंचते रात्रि हो गई एवं त्रिवेणी के तट पर आश्रम बनाकर भगवान आराधना करने वाले मुनि भारद्वाज ने भरत जी का आतिथ्य सत्कार किया साथ ही भरत जी के साथ आये  अयोध्या वासियों को भी सुविधा के साथ अपने आश्रम में ठहराकर तपोबल के प्रभाव से कामधेनु के द्वारा अलौकिक स्वादिष्ट पदार्थ उत्पन्न करके सब का सत्कार किया !

कौरवों के पास विपुल धन जन तथा भीष्म पितामह द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे प्रचंड पराक्रमी योद्धाओं का बल देकर युधिस्टर अर्जुन भीम के मन में भी ऐसी भावना प्रकट हुई कि हम लोगों के पास भी कुछ दिव्य शक्ति होनी चाहिए और उनके होने पर ही हम विजय प्राप्त कर सकेंगे ,  की   अतैव भाइयों की सम्मति लेकर अर्जुन ने तत्काल हिमालय की ओर प्रयाण किया और सर्वप्रथम भोले नाथ भगवान शंकर की आराधना  करके उनकी प्रसन्नता प्राप्त की और उनसे मंत्र के साथ पाशुपतास्त्र नामक दिव्य अस्त्र प्राप्त किया ,
 तदन्तर वरुण वायु अग्नि चंद्र आदि देवताओं का स्मरण किया वहीं इंद्र का भेजा हुआ देव सारथी मातली रथ लेकर आ गया और   अर्जुन उसमें बैठकर सशरीर स्वर्ग गए वहां संयम नियम का पालन करते हुए 5 वर्ष रहकर देवताओं के अस्त्र-शस्त्र का ज्ञान मंत्रों के साथ ग्रहण किया तंत्र जब देवताओं को गुरु दक्षिणा देने की बात अर्जुन ने की तब इंद्र आदि देवताओं ने समुद्र में निवास करने वाले निवात कवच और पौलोम नामक 60000 अत्यंत बलवान भयानक राक्षसो से जिन के भय से  देवता रात दिन नींद भूख भूलकर कांपते रहते थे रक्षा करने की मांग की , अकेले अर्जुन ने वहां जाकर राक्षसों को ललकारा और युद्ध में उनका संघार करके देवताओं को प्रसन्न किया एवं पृथ्वी पर आकर भाइयों से मिले तथा कौरवों के साथ 18 दिन युद्ध करके नरवीर अर्जुन ने साधना से प्राप्त दिव्य अस्त्रों का अनुपम अमित पराक्रम दिखाया और सारी कौरव सेना का संहार करके" न भूतो न भविष्यति " जैसीअलौकिक विजय प्राप्त की !

मगध देश के नंद राजा ने बिना किसी अपराध के धर्मात्मा विद्वान ब्राह्मण कौटील्य को जिन का दूसरा नाम चाणक्य था अच्छी सलाह देने पर भी उल्टा अपमान करके निकाल दिया इससे उस उन्मत्त राजा के अन्याय पूर्ण अस्तित्व का नाश करने के लिए चाणक्य ने एकांत निवास कर अथर्ववेद के मारण तारण उच्चाटन आदि मंत्रों का विधिवत प्रयोग किया जिससे नंद राजा का  वंश जड़ मूल से नाश हो गया और उसके स्थान पर चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य का राज्य स्थापित किया !

इस प्रकार तात्पर्य यह है कि  विपत्ति के समय भगवान की शरणागति स्वीकार करके मंत्र उपासना करने पर ही हमें सत्यमार्ग मिलता है और हमारे प्रत्येक संकट दूर होते हैं और हमारा  कल्याण होता है

मंत्र की स्पोट शक्ति -


यह एक सुनिश्चित बात है कि व्यक्ति शक्ति का घटक है उसे ऊर्जा ग्रहण करनी पड़ती है तो उसका विकिरण भी करना पड़ता है सामान्य स्थिति में वह संश्लिष्ट अवस्था में रहता है इसलिए वह देश काल की सीमा में बंधा हुआ रहता है किंतु जब वह आत्म साक्षात करने का प्रयत्न करता है तो उसे अपने आप में बहुत सारी विलक्षणताओ का ज्ञान होता है यह स्थिति जहां पर दोनों ही संभावनाएं रहती है अर्थात या तो वे उन चमत्कारों के चक्कर में ही उलझ जाए अथवा उस चीज को भी पार करके अपने अभीष्ट तक पहुंच जाए यह स्थिति संस्कारों पर निर्भर करती है किंतु प्रयत्न भी इसके लिए कोई सामान्य मार्ग नहीं है योग और मंत्र दोनों ही मार्ग इसके लिए प्रशस्त राजमार्ग है प्रतीकउपासना के माध्यम से जब ब्रह्म का साक्षात्कार होता है तो उसका स्तवन इसी शब्द के द्वारा होता है योग वायु तत्व की साधना है तो मंत्र आकाश तत्व की साधारणतया वायु में दो (शब्द और स्पर्श) तन्मात्राएं होती है इसलिए वह जटिल और दुष्कर है मंत्र में चूंकी आकाश तत्व की उपासना होती है इसलिए वह अपेक्षाकृत सुगम होता है क्योंकि उसमें एक ही शब्द तन्मात्रा का भार होता है प्राण वायु के झटको से कुंडली का उद्बोधन होता है और उसके बाद में जो ब्रह्मांड के दर्शन होते हैं वही दर्शन शब्द उपासक को भी होते हैं इसी स्थान तक योग और मंत्र भिन्न होते हैं इससे आगे दोनों  का ही एक मार्ग हो जाता है अंत में जिन सहत्र शिराओ के पूंजीभूत आकार को निर्गुण उपासक योगी देखता है उन्हीं को शेष शाही अथवा" सहस्त्र शीर्षा पुरुष :"के रूप में अक्षर ब्रह्म का उपासक देखता है उपलब्धि के रूप में दोनों ही एक है किंतु पथ भिन्न है शब्द में स्फोट होता है और स्फोट का आदि और अंत दोनों ही शक्ति सापेक्ष है अर्थात सफोट शक्ति से होता है और   स्फोट से शक्ति उत्पन्न होती है जिन सामान्य स्फोटो को हम व्यवहार में लाते हैं उनकी शक्ति और परिणाम हमारे सामने हैं जिन काम क्रोध आदि की चर्चा और अनुभव हम करते हैं उनका उद्भव और नियंत्रण भी बहुत कुछ सीमा तक इन  स्फोटो पर निर्भर है भावनाएं अव्यक्त है किंतु  जहां वे झंकृत  हुई  स्फोट का जन्म हो गया, भावनात्मक रूप में एक अलक्षीत ऊर्जा का स्वरूप थी, चेस्टाओ के माध्यम से वे कुछ व्यक्त हुई और शब्दों का रूप ग्रहण करके वह करके तो वे मूर्त हो चुकी !


स्पॉट कहां से होता है ? -:

अब प्रश्न यह उठता है कि यह स्पॉट उत्पन्न कहां से होता है अतः यह प्रश्न व्यक्ति के शरीर तंत्र से ही संबद्ध
है अन्यथा घनगर्जन झरने का कल कल जैसे प्राकृतिक तथा घंटा बजाने और बर्तन गिरने जैसे कृतिम शब्दों के विस्फोट का उद्गम तो हम जानते हैं शरीर तंत्र में उपांशु और मानसिक जपो की भी एक प्रक्रिया है जिसमें स्फोट की कल्पना अथवा आभास मात्र ही नहीं होता वरन यथार्थ स्पोट होता है और यह स्पोट दूसरे द्वारा    श्रव्य ध्वनि के रूप में नहीं होता, इन   स्फोटो की निर्दोषता पर ही हमारी साधना निर्भर रहती है भाषा विज्ञान भौतिक विज्ञान है अतः उसकी सीमा अतिंद्रीय आध्यात्मिक ज्ञान तक नहीं जाती व्याकरण और भाषा विज्ञान शब्दों के ज्ञेय स्थान और प्रयत्नो  तक की खोज करता है इससे आगे नहीं फिर भी भाष्कार ने जिन परा,पश्यन्ति,  मध्यमा और वैखरी वृर्तियों की स्थापना की है उस शब्द के मूल उद्गम को नापने की और विशिष्ट प्रयत्न के प्रतीक है एक पक्की राग का गायक जब गाता है तो ध्वनि उसके कंठ से भी गहरे किसी स्थान से उत्पन्न होती है यही तक महाभाष्यकार  की पहुंच है योग शास्त्र इस नाद ब्रह्म की उपासना में इससे दो कदम आगे हैं वह शब्द की उत्पत्ति के लिए षट्चक्र का निर्देश करके ध्वनि विशेष किंवा नाद विशेष की उपयुक्तम स्थिति का ज्ञान कराता है यह ज्ञान होने के बाद स्वयं ब्रह्म स्वरूप हो जाता है


मंत्र कैसे प्रभाव करता है -:

शब्द की सबसे बड़ी विशेषता यह रहती है कि वह किसी भी माध्यम के द्वारा चल सकता है किसी ठोस चीज के भी एक सिरे पर यदि ध्वनि की जाती है तो वह दूसरे सिरे पर सुनाई दे जाती है यह उच्चतम संवहनशिलता इसकी न्यूनतम तन्मात्रा के कारण हैं अथवा आकाश तत्व के कारण इसमें यह गुण आ सकता है भाषा के रूप में यह देश और व्यक्ति की सीमाओं में बंद सकता है किंतु ध्वनि के रूप में यह विश्वरूप है करुणा जनक संगीत चाहे किसी भी देश का हो वह किसी भी वाद्य का हो सभी को प्रभावित करेगा इसी तरह युद्ध में प्रयाण करते समय का वाद्य भी एक शौर्य का  वातावरण बनाने में सहायता करेगा ,सिंह के गरजन से अथवा  बिजली की  चमक से पहले होने वाले भीषण गर्जन से या ऐसी  ही विप्लवकारी ध्वनि से प्रत्येक हृदय भी भयजडित हो जाता है इसके विपरीत श्रुति मधुर पर्वतीय झरने के कल कल से अथवा किसी वादक के वाद्ध से फूट पड़ते संगीत से प्रत्येक हृदय में आनंद की अनुभूति होती है यह इसी शब्द की महिमा है यह सारे परिणाम उस शब्द के भौतिक परिणाम हैं हर सुख दुख दुख आदि दोनों के जनक के रूप में यह उस नाद ब्रह्म का माया वेस्टीत प्रभुत्व है परमार्थत: तो वह इनसे प्रभावित और निरमुक्त स्थिति है !!

नाटक का पढ़ना और नाटक देखना जिस प्रकार दो भिन्न स्थितियां है भिन्न इसलिए की नाटक के पढ़ने से सुखानुभुति होती है और देखने से आनंद अनुभूति सामान्य रूप से होती है विशेषतया तो इनमें विपर्यय हो जाता है क्योंकि यहां भी व्यक्ति की संवेदनशीलता की तीर्वता, और क्षीणता प्रमुख रूप से कारण होती है ठीक इसी प्रकार शब्द के साथ बहने वाली भावना की उर्जा भी विशिष्ट कारण है यद्यपि शब्द ब्रह्म का जब विलीनीकरण होता है तो उसी ईकाई

 की सीमाएं विराट में अंतरिहत होकर अस्तित्व विहीन हो जाती है फिर भी उस सीमा तक पहुंचने के लिए यह प्रक्रिया आवश्यक है पर ब्रह्म से एक रूप होने के लिए ब्रह्म की प्रथक सता अपरिहार्य है सिंधु रूप होने के लिए बिंदु पृथकता अनिवार्य है 

"शब्द "को अक्षर कहते हैं जिसका अर्थ होता है अविनाशी ठीक यही संगीत ध्वनि के साथ है जो ध्वनि एक बार हो जाती है वह कभी भी नष्ट नहीं होती इसलिए अक्षर में अक्षरत्व है और यह अविनाशीत्व  उसी ब्रह्म का गुण है


मंत्र की पूर्णता -:


शब्द किं वा मंत्र की उपासना में प्रथमत  द्वैत रता है भावना और शब्द का भावनात्मक शक्ति की तरंगे और शब्द की लहरें मिलकर मंत्र पूर्ण होता है इन दोनों में जितना स्पष्ट सामंजस्य रहेगा उतना ही स्पष्ट हमारा साध्य होगा , भावना और शब्दों का संमन्वय संबंध है इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता फिर भी भावना को शब्दों की आकांक्षा रहती है व्यक्तिगत रूप से हम इच्छाशक्ति को
 दूसरा स्थान ही देते हैं क्योंकि यदि ध्वनि का क्रम निर्दोष है नाद के लिए समय और स्थान उपयुक्त है तो इच्छा शक्ति या भावना को देर सवेर आना ही पड़ेगा ,एक प्रश्न फिर भी शेष रह जाता है कि ध्वनि अथवा भाषा देश काल जनित उपलब्धियां हैं, उनका मोड़ प्राकृतिक अथवा व्यक्ति की वातावरण जनित विशेषताओं से युक्त नहीं हो सकता जबकि भावना के रूप में यह सार्वभौम  व्यापक है एक रूप है अतः मंत्र में भावना को शीर्ष स्थान मिलना चाहिए ध्वनि,के रूप में किसी भी विकल्प कि आवश्यकता नहीं है और भावना के व्यक्तिकरण के लिए भाषा की अपरिहार्य आवश्यकता है किंतु यह ध्वनि की परीसीमाएं भौतिक उपलब्धियों तक ही सीमित है अभिचार और वशीकरण जैसी साधना ओं के लिए भाषा भेद हो सकता है निर्विकल्प समाधि के लिए न तो देशीयता की और नहीं वैयक्तिकता की अपेक्षा है

मंत्रों में प्राण प्रतिष्ठा -:

करने को भौतिक जगत के चमत्कारों के लिए उस पुरातन विधि की युग इन शब्दों में व्याख्या कर लें किंतु उस शब्दातीत 
 स्थिति के लिए तो उसी पुरातन भारतीय प्रक्रिया को अपनाना पड़ेगा, जागतिक चमत्कारों को प्राप्त करने के लिए किसी भी भाषा के मंत्रों को काम में दिया जाए किंतु वे भी मंत्रत्व
प्राप्त करने के लिए प्राण प्रतिष्ठा चाहते हैं और वह प्राण प्रतिष्ठा उस नाद ब्रह्म की यथा विधि उपासना से ही हो सकती है मूल तत्व एक होता है उसके मिश्रण कई हो सकते हैं इसी नियम के अनुसार शब्दों की विविध रूप भले ही हो जाए किंतु उनकी ऊर्जा का मूल केंद्र स्पोट का उद्गम परिवर्तित नहीं होता इसलिए मंत्र एक देश विशेष का अर्जन नहीं होकर अलग-अलग वर्गों और संप्रदायों की साधना विधि के रूप में प्रचलित है मंत्र दृष्टा ऋषि यों का जो स्थान है वही स्थान साबर तंत्र में लोना चमारी मोहम्मदा पीर और गोरखनाथ का है इसमें भावना का चमत्कार दूसरे ही नंबर पर है अन्यथा मंत्रों के लक्षावधि  जप करने की आवश्यकता उसी नाद ब्रह्म की उपासना से संबंधित नहीं होती, इसका दूसरा उदाहरण यह भी देखने में आता है कि कहीं बार मंत्र का अर्थ बोध हुए बिना भी जप करने से उसकी सिद्धि हो जाती है अतः भावना या इच्छाशक्ति को मुख्य नहीं माना जा सकता !


मंत्र का निरंतर जप क्यों आवश्यक है? -: 

मंत्र के रात दिन जप से एक वैद्धूतिक  वातावरण का निर्माण होता है उससे हमारे शरीर और मस्तिष्क  से विकिरण होने वाली तरंगें यथेष्ट दिशा में गमन करती है और उनसे हमारा अभिजीत सिद्ध हो जाता है किंतु यह होता है स्थूल जगत में ही वास्तव में मंत्र में भावना शक्ति की तरंगे बिजली की धारा की तरह प्रतिरोध सहित गति से गमन करती है तथा शब्द अनुदैध्य  तरंगो में गमन करता है प्रयत्न करने पर दोनों ही अदृश्य तरंगे एक सी गति से गमन करने लग जाती है और ऐसी स्थिति में ही शक्तिशाली वातावरण का निर्माण होता है इस वातावरण के निर्माण हो जाने के बाद कोई भी भौतिक चमत्कार अल्भय नहीं रह जाता किंतु इस स्थिति तक यह सारी उपलब्धियां सिंथेसिस स्टेट ही रह पाती है यहां पर आने के बाद साधक चमत्कारों अथवा अपनी सूक्ष्म शक्ति के पीछे जगत पर पाए गए नियंत्रण को देखकर उनमें ही चमत्कृत हो जाता है तो उसे अन्य कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाता तथा वह उस अलौकिक जगत के अनुुदघठित द्वार पर ही मार्ग भ्रष्ट होकर इधर-उधर डोलने लग जाता है अन्यथा इस प्ररेय बंन्धनो
 की सीमा को लांघ कर केवल्य पद को भी प्राप्त कर सकता है 
मंत्रों को आशय भेद से दो प्रकार का माना जा सकता है प्रथम वे जो हमारी सत्ता को जगाते हैं ऐसे मंत्र "अहम् ब्रह्मास्मि" के महावाक्य का तत्वार्थ बोध कराते हैं दूसरे वे हैं जो किसी माध्यम के अर्जन द्वारा हमें उस परम शक्ति संपन्न के सम्मुख उपस्थित कर देते हैं कोई सा भी प्रकार हो परम पद के लिए वे दर्पण बन कर आते हैं चाहे हम उसमें अपने आप को देखे या किसी और को, अंतत विराट हमको ही होना पड़ता है इस युग में मंत्र के अपेक्षा स्त्रोत को अधिक को अधिक प्रभावशाली समझा गया है कारण स्पष्ट है कि जिस मंत्र के साधन के लिए जिस प्रकार की उपासना उपेक्षित है वह आज दूरूह हो गई है कोई भी पद्धति हो कोई भी युग हो शब्द और शब्द की सपोट जनित शक्ति से अस्वीकार नहीं किया जा सकता !




मंत्र की उत्पत्ति -:


श्वेतवाराह कल्प के आदि में क्षीरसागर में शयन की हुए श्री नारायण भगवान को देखकर ब्रह्माजी ने पूछा कि आप कौन हैं? श्री भगवान भोले, हे पुत्र ! तुम्हारा कल्याण हो क्या तुम मुझको नहीं जानते हो मैं ही संसार का कर्ता भर्ता हर्ता हूं ऐसा सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा यह मिथ्या वचन है मुझको छोड़कर दूसरा कोई संसार को उत्पन्न करने वाला नहीं है इस तरह जब दोनों का आपस में विवाद होने लगा तब तत्क्षण एक ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ जिससे स्पॉट होकर बिंदु और वर्णों के  संकेत वेद रूप में प्रकट हुआ तथा वहीं ऋषियों 
के हृदय में नाद रूप में उत्पन्न हुआ फिर से ध्वनि तथा   वर्ण प्रकट हुए, इन्हीं वणों को मंत्र की संज्ञा दी गई अतः मंत्र स्वत सिद्ध  होकर साधकों के हृदय में एक उपासना के रूप में प्रकट हो गए ,

 दूसरा पक्ष यह है कि एक समय भगवान शंकर प्रसन्न होकर नृत्य कर रहे थे और डमरू बजाते हुए तांडव नृत्य में समाधिस्थ से हो गए , उस समय उनके  के डमरु की ध्वनि से अईउण , ऋऌक, एओड, इत्यादि चौदह सूत्रों का प्राकट्य हुआ ,इन्हीं सूत्रों के आधार पर श्री पाणिनी मुनि ने व्याकरण शास्त्र का विस्तार किया, इन्ही सूत्रों से मंत्रों का उद्धार हुआ है  अतः सिद्ध है कि मंत्रों के आदी भगवान श्री शंकर है

मंत्र के भेद -:

नारद पंचरात्र द्वितीय रात्र में उनके सप्तम अध्याय में बतलाया गया है कि मंत्र तीन प्रकार के होते हैं  १,सौरा पुंदेवता २,सौम्या स्त्री देवता ३, और तीसरा नपुंसक ,
जिस मंत्र के अंत में" हुं फट  "  हो वह मंत्र पुरुष मंत्र है जिस मंत्र के अंत में"   वषट् स्वाहा " हो वह मंत्र स्त्री रूप है जिस मंत्र के अंत में  "हुं नमः " हो वह मंत्र नपुंसक मंत्र है जागृत, सुसुप्त, मित्र, शत्रु , सौम्य,क्रूर, अति क्रूर ,छिन्न, रूद्र, शक्तिहीन ,पराड्मुख ,बधिर ,नेत्रहीन,दग्ध,त्रस्त,मलिन,मदौन्मत, मूर्छित,प्रध्यस्त, बालक, कुमार, युवा, प्रौढ,वृद्व, केकर तथा कूट, यह मंत्रों के भेद हैं साधकों को चाहिए की दुष्ट मंत्रों का त्याग करें क्योंकि वह सिद्धि दायक नहीं होते मंत्र ग्रहण करने अथवा दीक्षा लेने के समय काल और देश का निर्णय करना आवश्यक है इन का ज्ञान हो जाने पर साधक को मंत्र सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है इनके लिए मंत्रवैताओ ने समय को इस प्रकार ग्रहण किया


मंत्र पाठ में आवश्यक ध्यान देने योग्य बातें -:

मंत्र साधना प्रारंभ करने से पहले साधक को निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए जो निम्न प्रकार है

१, मास निर्णय -

चैत्र मास में दीक्षा ग्रहण करने से पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं वैशाख में रतन लाभ जेष्ठ मास में मरण आषाढ़ मास में बंधुनाश श्रवण मास में दीर्घायु भाद्रपद मास में संतान नाश अश्विन मास में रतन संचय कार्तिक मास और अगहन मास में मंत्र सिद्धि पौष मास में शत्रु पीड़ा माघ मास में मेधा वृद्धि तथा फाल्गुन मास में मंत्र ग्रहण करने से सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं

२, वार निर्णय -:

रविवार के दिन मंत्र ग्रहण करने से वित लाभ होता है सोमवार में शांति मंगलवार में आयुक्षय बुधवार में सौंदर्य लाभ बृहस्पति   वार में ज्ञान वृद्धि शुक्रवार में सौभाग्य लाभ तथा शनिवार में यस की हानि होती है

३, तिथि निर्णय -:

प्रतिपदा तिथि में मंत्र ग्रहण करने से ज्ञान नाश दित्तीय में ज्ञान वृद्धि तृतीया में शुद्धता प्राप्ति चतुर्थी में वित्त नाश पंचमी बुद्धि की वृद्धि षष्टी में  ज्ञान का   क्षय सप्तमी में सुख लाभ अष्टमी में बुद्धिनाथ नवमी में शरीर क्षय  दसवीं में राज सौभाग्य की प्राप्ति एकादशी में पवित्रता द्वादशी में सर्व कार्य सिद्धि त्रयोदशी में दरिद्रता चतुर्दशी में तिर्यग्योनि की प्राप्ति तथा मास के अंतिम अमावस्या में दीक्षा ग्रहण करने से कार्य की हानि होती है पक्ष के अंत पूर्णिमा में दीक्षा लेने से धर्म की वृद्धि होती है


४, नक्षत्र निर्णय -:

अश्विनी नक्षत्र में सुख लाभ , भरणीमें मरण , कृतिका में दुख , रोहिणी में विद्या प्राप्ति , मृगशिरा में सुख , आद्रा में बंधुनाश ,पुनर्वसु में धन प्राप्ति , पुषय में शत्रु का नाश , आश्लेषा में मृत्यु , मघा में दुख नाश , पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी एवं हस्त में  ज्ञान तथा धन की प्राप्ति होती है

५, योग निर्णय -:

प्रीति , आयुष्मान ,  सौभाग्य , शोभन ,  धृति , वृद्धि , ध्रुव , शुकर्मा , साध्य , शुभ , हर्षण ,  वरियान , शिव , सिद्ध , ब्रह्म , तथा इंद्र , इन योगों में दीक्षा सफल होती है

६, करण निर्णय -:

बव , बालव , कौलव , तैतिल , वनिज ,  इन करणों में दीक्षा मंगलकारी होती है


७, लग्न निर्णय -:

वृष , सिंह , कन्या , धनु और मीन इन पांचों लग्न में चंद्र तारा की अनुकूलता देखकर दीक्षा दान सफल होता है मेष वृश्चिक सिंह और कुंभ स्थर लग्न है यह विष्णु मंत्र ग्रहण में शुभ जनक है मिथुन कन्या धनु तथा मीन शक्ति दीक्षा में मंगलकारी है मेष कर्क तुला और मकर यह लग्न शिव मंत्र ग्रहण में मंगलकारी है लग्न के तीसरे छठे और एकादश स्थान में पाप ग्रह हों तथा लग्न में चौथे सप्तम दशम नवम और पंचम स्थान में शुभ ग्रह हो तो दीक्षा कल्याण कारिणी होती है


८, पक्ष निर्णय -:


शुक्ल पक्ष में दीक्षा शुभ और कृष्ण पक्ष की पंचमी तक दीक्षा शुभ होती है सूर्यग्रहण के समान उत्तम काल दीक्षा ग्रहण के लिए और कोई भी नहीं हो सकता ,!

९, दीक्षा स्थान -:

गौशाला में , गुरु के घर में , देव मंदिर में , वन में ,  बगीचे में ,नदी के तीर , धात्री और बिल्लू वृक्ष के समीप में , पर्वत के ऊपर और गुफा में ,  तथा गंगा तट पर ग्रहण की हुई दीक्षा कोटि-कोटि गुणित फल प्रदान करने वाली होती है

१०, आसन -:

कंबल के आसन पर बैठकर मंत्र जपने से सर्व कामना सिद्धि होती है काले हिरण की खाल पर बैठकर जप करने से मुक्ति होती है व्याघ्र चर्म पर बैठकर जप करने से मोक्ष होता है कुशा सन पर बैठकर जप करने से ज्ञान प्राप्त होता है पत्र से बनाए हुए आसन पर बैठकर जप करने से दीर्घायु होतीहै पत्थर पर बैठकर जप करने से दुख होता है काष्ट पर बैठकर जप करने से रोग होता है वस्त्र आसन पर बैठकर जप करने से स्त्री प्राप्ति होती है भूमि पर बैठकर जप करने से मंत्र सिद्ध नहीं होता है तृणासन से यस की हानि  होती हैं 

११ , मंत्र जप का स्थान निर्णय -:

पर्वत शिखर पर नदी के किनारे शिव मंदिर में या विष्णु मंदिर में अपने घर में अथवा जहां मन लगे वहां बैठकर जप करें , घर पर जप करने से एक गुना नदी किनारे पर दोगुना गंगा किनारे सौ गुना अग्नि साला में इससे भी अधिक और सिद्ध क्षेत्र में तथा विष्णु मंदिर में जप करने से कौटि गुना फल मिलता है


१२, मंत्र जप करने की विधि -:

साधक स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वस्ति कासन लगाकर आसन पर बैठे पश्चात गुरु गनाधिपति को नमस्कार करें उनका विधान इस प्रकार है 

स्वस्ति श्री परमशिवानाथपादाधशेषगुरुपारमपर्यक्रमेणस्वगुरुनाथपादाम्बुजं यावत् तावत् प्रणौमि ,ऊं श्रीगुरुभ्यो नम: "

  इस मंत्र से मुर्धा का स्पर्श करें ,"गं गुरुभ्यो नमः "इससे दक्षिण कंधा का स्पर्श करें, "गं गणपतये नमः " इससे वामन स्कंध का स्पर्श करें , "दुं दुर्गायै नमः " इससे वाम उरू स्थान का स्पर्श करें, " क्षेत्रपालाय नमः " इस मंत्र से दक्षिण-पूर्व स्थान का स्पर्श करें, और   ," सं सरस्वत्यै नमः " इस मंत्र से मुंह का स्पर्श करें,"  ऊं सहस्त्रार हुं फट् "इस सुदर्शन मंत्र से अंग न्यास करें, इसके बाद भूत शुद्धि एवं प्राण प्रतिष्ठा करके प्राणायाम करें मूलाधार से कुंडलिनी देवी को स्वास द्वारा ब्रह्मरंध्र में ले जाकर मूलाधार में वापस लाकर स्थित कर दे यह क्रिया गुरु गम्य  है विना इसके क्रिया के मंत्र सिद्ध नहीं होता है

१३, मंत्र पूजा -:

साधक अपने अभीष्ट मंत्र को ताम्र पात्र में अष्टगंध से लिखें चारों तरफ कादि हादि मंत्र लिखकर संपुटित कर दें कादी और हाथी विद्या क्रमश इस प्रकार है

(१) क ए ई ल हीं ह स क ल  हीं 

 (२) ह स क ल हीं ह स क ल ह्लीं सकल हरलीन


इस प्रकार मंत्र की षोडशोपचार विधि से पूजा करें प्रत्येक मंत्र के देवता प्रथक प्रथक होते हैं अतः साधक ने जो मंत्र ग्रहण किया हो उस मंत्र के देवता कि वह इसमें भावना करें इसको भी देव प्रतिमा समझकर श्रद्धा भक्ति एवं दृढ़ भावना से मन को इसमें तन्मय करके उपासना करना प्रारंभ करें जिससे साधक को निश्चित रूप से सिद्धि प्राप्ति होती है

जय श्री राधे राधे


आचार्य श्री कौशल कुमार शास्त्री
९४१४६५७२४५







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