श्री कृष्ण का जामवंती व सत्यभामा के साथ विवाह

सत्यभामा कृष्ण विवाह

               श्री कृष्ण का जामवंती व सत्यभामा के साथ विवाह

जय श्री राधे राधे

(२१)
आज की भागवत चर्चा में हम भगवान श्री कृष्ण का देवी सत्यभामा व जामवंती जी के साथ विवाह प्रसंग की चर्चा करने जा रहे हैं। तो आइए भागवत चर्चा की सरिता में प्रेम अनुभूति के गोते लगाते हैं।।

सत्राजीत का भगवान सूर्य से स्यन्तक मणि प्राप्त करना -:

शुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहते हैं। कि हे राजन! जब भगवान श्री कृष्ण रुक्मणी के साथ विवाह करते हैं। और उनके साक्षात काम देव के रूप में प्रद्धुमन जी महाराज का जन्म होता है। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण  द्वारिका में उग्रसेन जी महाराज के नेतृत्व में धर्म परायण शासन कार्य में सहयोग कर रहे हैं। उसी क्रम में एक दिन सत्रजीत जो द्वारिका का प्रमुख सामंत हूं। उसने भगवान सूर्य को प्रसन्न कर सूर्य देव से स्यन्तक मणि प्राप्त की। जो एक दिन में सत्तरह बार सोना देती थी। जब सत्राजीत मणि को अपने गले में टांग कर भगवान सूर्य से विदा होकर के द्वारिका लौट रहे थे। तो ऐसा लग रहा था। कि मानो साक्षात सूर्य देव भगवान द्वारिका में उतर रहे हैं। सारे द्वारिका वासी बड़े आश्चर्य चकित होने लगे। कि आज साक्षात सूर्य भगवान द्वारिका में पधार रहे हैं।और सभी द्वारिका वासी इस का भेद जानने के लिए भगवान श्री कृष्ण से कहने लगे।।

तुमहौ सब देवनके देव, कोई नहीं जानत तुम्हराभेव।  तुम्हरे गुरुअरुचरित्र अपार, क्यों प्रभु छिप्यो संसार।।

तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि यह भगवान सूर्य नहीं अपितु हमारे सत्राजीत है। जो भगवान सूर्य को प्रसन्न करके दिव्य मणि प्राप्त करके लौट रहे हैं। जब सत्राजीत इस प्रकार द्वारिका में आए। तब भगवान श्रीकृष्ण ने एक दिन उससे वह मणि मांगी, लेकिन सत्राजीत ने भगवान श्रीकृष्ण को  मणि देने से मना कर दिया।।

भगवान श्री कृष्ण के ऊपर मणि चुराने का झूठा कलंक लगना -:

 तब एक दिन सत्राजीत का छोटा भाई प्रहसेन घोड़े पर आरूढ़ होकर स्यन्तकमणि को अपने गले में टांग कर आखेट के लिए बन में चला जाता है। और आंखेंट खेलता हुआ जैसे ही घनघोर वन में गया। वहां उसका सामना वनराज सिंह से हुआ। और सिंह ने प्रहसेन को अपने भोजन  का ग्रास बना लिया। उसी वन में गुफा के अंदर रिछराज जामवंत जी निवास करते थे। तब जामवंत जी का सामना उस सिंह से हुआ जो स्यन्तकमणि को अपने पंजे में दबा रखा था। तब जामवंतजी वनराज सिंह को प्रताड़ित करके भगा दिया। और सयमंनतक मणि को लेकर  अपनी गुफा के अंदर आते हैं। तथा मणि अपनी पुत्री जामवंती को दे देते हैं। जामवंती उसे खिलौना समझकर खेलने लगी।।

हमको त्यागी अकेलो धामों,  जहां गयोतहं खोजन पायो।

 कहतन  बनै ढूंढि फिरी आये, कहु प्रसेन बन में पाये।।


जब प्रहसेन कुछ दिनों तक नहीं आया और मणि का भी कोई पता नहीं लगा । तब सत्राजीत ने कहा कि मेरे छोटे भ्राता को श्री कृष्ण ने मार दिया क्योंकि उन्होंने मुझसे सयमंनतक मणि मांगी थी। तब मैंने उनको  मणी देने से मना कर दिया था। इसलिए कृष्ण ने ही उस मणि को प्राप्त करने के लिए मेरे भाई प्रसेन का वध किया है। इस प्रकार जब नगर में यह बात फैलने लगी। और भगवान श्रीकृष्ण को ज्ञात हुआ कि सत्राजीत ने मेरे ऊपर झूठा कलंक लगाया है। तब भगवान श्री कृष्ण अपने कुछ अनुयायियों को लेकर पद चिन्हों की खोज करते हुए जंगल में जाते हैं। जैसे जंगल में गए और वहां जाकर  देखा कि सिंह ने प्रहसेन का वध किया है। क्योंकि वहां कुछ अवशेष बने हुए थे। और उसके बाद सिंह का रीछ से सामना हुआ है। क्योंकि वहां रीछ के भी पद चिन्ह बने हुए हैं। और रीछ के पद चिन्ह किसी गुफा विशेष में जा रहे हैं। तो भगवान श्री कृष्ण ने अपने साथ आए अनुयायियों को बाहर खड़ा करके कहा कि देखो मैं जब तक नहीं आ जाता, जब तक तुम बाहर ही खड़े रहना। ऐसा कह कर के श्री कृष्ण गुफा के अंदर प्रवेश करते हैं। वहां जाकर के देखा कि जामवंत जी  की पुत्री जामवंती मणि से खेल रही है।

श्री कृष्ण जामवंती विवाह -:

 भगवान श्री कृष्ण को देख कर जामवंत जी कहने लगे। अरे मानुष! तुम कौन हो? और मेरी इस गुफा में मेरी अनुमति के बिना कैसे आए हो? तब उन्होंने कहा मैं श्री कृष्ण हूं और मैं मेरे ऊपर लगे हुए इस कलंक को दूर करने के लिए संयनतकमनी को लेने आया हूं। तब जामवंत  ने कहा कि यह मणि मैं तुम्हें नहीं दूंगा। अगर तुम्हें लेना ही है। तो पहले मुझे युद्ध में हराना होगा। इस प्रकार जामवंत और भगवान श्री कृष्ण के बीच युद्ध होने लगा। और मल्लयुद्ध दिन रात चलता रहा 18 दिन बीत गए लेकिन ना तो भगवान श्री कृष्ण ही जीत पाते हैं और ना ही जामवंत।। जब 18 वें दिन भगवान श्री कृष्ण ने जामवंत जी के पीठ पर जोर से मुठ्ठी का प्रहार किया। जिससे उनकी एक हड्डी टूट जाती है। जैसे ही   उनकी पसली टूटी, तत्काल भगवान श्री कृष्ण के चरणों में गिर जाते हैं।

ठाढ़ो भयो जोरिकै हाथ,  बोल्यो दरशदेहु रघुनाथ।

 अंतर्यामी मैं तुम जाने, लीला देखत ही पहचाने।।

 भली करी लीनो अवतार, करी हौ  दूरी भूमि को भार।

त्रेतायुगते इहिठां रह्यो, नारद भेद तुम्हारो कह्यो।।

 मणि के काज प्रभु इत ऐ है, तबहीं तोको दर्शन दैहैं।।।


और कहते हैं। कि भगवान मैऊ पहचान गया हूं। आप मेरे आराध्य देव भगवान श्रीराम है। क्योंकि आप ही नहीं मुझ से रामावतार में कहा था। कि आप मुझसे  मिलोगे और जो संकेत दिया था कि जब तुम्हारी पसली टूट जाए तो समझना कि मेरा अवतार हो गया। अब मैं पहचान गया हूं। मुझे क्षमा करना।भगवान श्री कृष्ण ने जामवंत जी को अपने गले लगाया। तब जामवंत ने कहा कि आप कृपा करके मुझे मेरे आराध्य श्री राम के दर्शन करा दीजिए। तब भगवान श्री कृष्ण ने श्री राम रूप के दर्शन श्री जामवंत  को कराते हैं।

तत्पश्चात जामवंतजी ने कहा कि प्रभु मेरे ऊपर कृपा करके मेरी पुत्री जामवंती से विवाह कीजिए। फिर दहेज स्वरूप यह सयमंनतक मणि मैं आपको दूंगा। इस प्रकार हे राजन !जामवंती का विवाह जामवंत जी भगवान श्री कृष्ण के साथ करते हैं। और दहेज स्वरूप सयमंनतकमणि भगवान श्रीकृष्ण को  देते हैं। और फिर वहां से भगवान श्रीकृष्ण विदा लेते हैं। भगवान जामवंती को लेकर बाहर आए और बाहर खड़े सभी अनुयायियों को सयमंनतक मणि दिखाई और सारा वृत्तांत कह सुनाया।। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने अपने राजदरबार में सत्राजीत को बुलाकर सयमंनतकमणि उसे देते हैं।।और सारा वृत्तांत कह सुनाया।

यह मणि जामवंतहीलीन्हीं,  सुता समेत मोहिंतिनदीन्हीं।

  मणि लेतबहिंचल्योशिरनाय,सत्राजित मन सोचता जाय।।


 इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने अपने ऊपर लगे चोरी के टीके का मार्जन किया।।
 सत्राजीत बड़ा लज्जित हुआ। और ग्लानी से भीगा हुआ नतमस्तक होकर  वहां से चला जाता है।।

 भगवान श्री कृष्ण ने जामवंती से विवाह करके  लौटते समय कहा था। कि तुम अपना मुंह किसी को मत दिखाना। जब तक रुकमणी तुमसे कुछ नहीं कहे तब तक तुम मुंह  मत दिखलाना। जब वेदोक्त रीति से भगवान श्री कृष्ण जामवंती का विवाह संपन्न होता है। तब रुक्मणी जामवंती से कहती है कि मुझे अपना मुंह तो दिखाओ, बार-बार प्रार्थना करने पर भी जब घूंघट की ओट बना कर रखती है। तब रुकमणी कहती है। कि तुम में ऐसा क्या है जो तुम अपना मुंह में नहीं दिखा रही हो। तुम भी हमारी जैसी ही तो होगी। इतना कहते ही  जामवंती का   स्वरूप भी रुकमणी के स्वरुप के समान दिव्य हो जाता है। तब देवी जामवंती ने भगवान श्री कृष्ण के ईसारा करने पर अपना मुंह देवी रुक्मणी को दिखाती है। रुकमणी जी जामवंती का मुंह देख कर शुभाशीष देती है।।

श्री कृष्ण सत्यभामा विवाह -:

उधर सत्राजीत बड़ा लज्जित हुआ कि मैंने श्रीकृष्ण को झूठा कलंक लगवाया। अब किस प्रकार से मै उनके ऊपर लगाए कलंक का मार्जन कर सकता हूं।

हरी अपराध कियो मैं भारी,अनजाने दीन्हीं कुलगारी।

यादव पति हि कलंक लगायो, मणि के काजे वैर बढायो।।

अब यह दोष कटै हो कीजै,सतिभामामणि  कृष्ण हिं दीजै।।

 

 इसलिए उन्होंने एक ही युक्ति सोची और भगवान से कृष्ण से प्रार्थना करने लगा कि प्रभु! मैं बहुत लज्जित हूं। मैंने बिना सोचे ही आप पर झूठा आरोप लगा दिया। आप से मेरी एक विनती है। आप कृपा करके मेरी विनती को स्वीकार कीजिए। प्रभु! मैं अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह आपसे करना चाहता हूं। जब इस प्रकार सत्राजीत ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्री कृष्ण के साथ करने की इच्छा व्यक्त की। तब भगवान श्रीकृष्ण ने भी इसमें अपनी सहमति प्रदान की। तब वेदोक्त रीति से शुभ समय शुभ मुहूर्त में भगवान श्री कृष्ण और सत्यभामा जी का विवाह संपन्न होता है। और सत्राजित  सयमंनतक मणि भगवान श्री कृष्ण को कन्यादान स्वरूप प्रदान करता है। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उसे स्वीकार करके पुनः सत्राजीत को ही लौटा देते हैं। और कहते हैं कि मणि आप अपने पास रखिए ।और इससे जो धन प्राप्त होता है वह राजकोष में जमा कराते रहना।।

इस प्रकार महाराज! भगवान श्री कृष्ण का सत्यभामा व जामवंती जी के साथ विवाह संपन्न होता है।।


दो०-

चांद चौथि को देखियो, मोहन भादो मास।

 ताते लग्यो कलंक यह, अति मन भयो उदास।।

 जो भादौ की चौथि को, चांद निहारै कोय।

 यह प्रसंग श्रवणनन सुनै,ताहि कलंक न होय।।


।।जय जय श्री द्वारिकाधीश भगवान की जय।।



आचार्य श्री कौशल कुमार शास्त्री
9414657245

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