
भोमासुर का वध
जय श्री राधे राधे
(२४)
आज की भागवत चर्चा में हम भगवान श्री कृष्ण की एक और दिव्य लीला की चर्चा करते हैं। जिसमें प्रभु ने भौमासुर का वध कर सोलह हजार सो राजकुमारीयो को बंधन मुक्त किया। और माता अदिति के कुंडल व देवराज इंद्र का छत्र लौटा कर स्वर्ग से कल्पवृक्ष लाने की लीला करते हैं। तो आइए प्रभु की इस लीला प्रसंग को गति प्रदान करते हैं।।
भौमासुर का जीवन वृत्तांत -:
शुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहते हैं। कि हे राजन! एक समय साक्षात पृथ्वी देवी मनुष्य रूप धारण कर भगवान नारायण की तपस्या करती है। और तपस्या से प्रभु को प्रसन्न करके वरदान मांगती है। कि प्रभु! मुझे ऐसा पुत्र दीजिए जो परम बलशाली हो, कभी उसकी पराजय नहीं हो, और अजर अमर हो। तब नारायण ने पृथ्वी देवी से कहा कि देवी! अजर अमरता का वरदान पाना असंभव है। फिर भी मैं भी तुम्हें ऐसा वरदान देता हूं। कि तुम्हारे ऐसा पुत्र होगा जो किसी से पराजय नहीं होगा। और उसकी मृत्यु तुम्हारे कहने पर ही संभव हो सकेगी। अन्यथा कोई भी उसकी मृत्यु नहीं कर सकता।।
वही पृथ्वी पुत्र भोमासुर प्रगज्योतिषपुर में शासन कर रहा था जिसने अपने भुजबल से समस्त देवताओं को अपने अधीन कर रखा था। उसने देव माता अदिति के कुंडल व देवराज इंद्र का छत्र छीन लिया था। अतः समस्त देवता उसके डर से अपने प्राण बचाकर कंदराओं में छिपे कर रह रहे थे।
तब एक दिन देवताओं ने श्री नारदजी के द्वारा श्री कृष्ण के पास उनको मुक्त करने का संदेश भिजवाया। और निवेदन किया कि प्रभु! आपका अवतार दुष्टो का संहार करने के लिए हुआ है। अतः आप भोमासुर का वध करके माता अदिति के कुंडल, देवराज इंद्र का छत्र व समस्त देवताओं को बंधन से मुक्त करवाने की कृपा करें। साथ ही इस दुष्ट दैत्य ने सोलह हजार सो राजकुमारियों को भी बंधन बना कर रख रखा है।।
वही पृथ्वी पुत्र भोमासुर प्रगज्योतिषपुर में शासन कर रहा था जिसने अपने भुजबल से समस्त देवताओं को अपने अधीन कर रखा था। उसने देव माता अदिति के कुंडल व देवराज इंद्र का छत्र छीन लिया था। अतः समस्त देवता उसके डर से अपने प्राण बचाकर कंदराओं में छिपे कर रह रहे थे।
तब एक दिन देवताओं ने श्री नारदजी के द्वारा श्री कृष्ण के पास उनको मुक्त करने का संदेश भिजवाया। और निवेदन किया कि प्रभु! आपका अवतार दुष्टो का संहार करने के लिए हुआ है। अतः आप भोमासुर का वध करके माता अदिति के कुंडल, देवराज इंद्र का छत्र व समस्त देवताओं को बंधन से मुक्त करवाने की कृपा करें। साथ ही इस दुष्ट दैत्य ने सोलह हजार सो राजकुमारियों को भी बंधन बना कर रख रखा है।।
श्री कृष्ण द्वारा भौमासुर का वध -:
इस प्रकार जब देवर्षि नारद ने श्री कृष्ण को देवताओं की तरफ से भोमासुर का वध करके उनको बंधन मुक्त करने का प्रस्ताव मिला।
कुछ काल पहले भगवान श्री कृष्ण ने स्वर्ग से कल्पवृक्ष का फुल लाकर देवी रुक्मणी को दिया था। तब सत्यभामा कुछ रुष्ट हो गई थी। तब प्रभु ने उसे मनाते हुए कहा था कि समय आने पर में देवी! मैं तुम्हारे लिए कल्पवृक्ष ही लेकर आऊंगा।आज भगवान श्री कृष्ण देवी सत्यभामा से कहते हैं। कि हे सत्यभामा! आज हम स्वर्ग चलते हैं। जहां से तुम्हारे लिए कल्पवृक्ष लेकर आएंगे। क्योंकि प्रभु जानते थे। कि इस समय सत्यभामा ही पृथ्वी देवी का अवतार है। और भोमासुर पृथ्वी का पुत्र है। तथा उसकी मृत्यु देवी पृथ्वी की आज्ञा के बिना असंभव है। इस गुप्त रहस्य को जानकर प्रभु श्री कृष्ण सत्यभामा को अपने साथ लेकर जा रहे हैं। तभी भगवान ने अपने परम वाहन गरुड़ को याद किया। तब तत्काल प्रभाव से गुरुड भगवान के सामने उपस्थित हो जाता है। तब सत्यभामा को प्रभु श्री कृष्ण गुरूड पर बिठाकर भोमासुर का वध करने के लिए निकलते हैं। जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण प्रागज्योतिपुर नगरी में पहुंचे। वहां जाकर देखा तो प्रागज्योतिषपुरी के पहाड़ों का वायु, अग्नि, शस्त्रो का परकोटा बना हुआ है। तब पहले भगवान श्री कृष्ण ने अपने आयुध से पहाड़ों के परकोटे को नष्ट किया। फिर वायु व अग्नि के पहरे को नष्ट करके भगवन आगे बढ़ने लगे। तब मुर नाम का दैत्य जिसके पांच मुख थे। वह अपनी विशाल सेना के साथ भगवान श्री कृष्ण को प्रागज्योतिष पूरी नगरी में जाने से रोकता है।
भगवान ने उस मुर नामक दैत्य का संहार किया। उसके पांचो सिरो को धड़ से अलग करके, उसकी सेना का संहार किया। फिर अंदर प्रवेश करने लगे। तब भोमासुर को ज्ञात हुआ। कि कृष्ण ने का मुर सेनापति सहित सेना का संहार कर दिया।
तब मुर के पांच पुत्र सेना के साथ श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिए आते हैं। वहां भयंकर युद्ध होने लगा। लेकिन प्रभु ने सभी दुष्टों का सेना सहित संहार किया। तब भोमासुर को ज्ञात हुआ कि कृष्ण किसी के रुके नहीं रुक रहे हैं। तब वह स्वयं अपने विशालकाय सेना के साथ श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिए आता है। और श्री कृष्ण के साथ अनेक प्रकार से मायावी युद्ध करने लगता है।
भयंकर युद्ध होता रहा। भगवान श्री कृष्ण के लाख जतन करने पर भी भोमा सुर का वध नहीं हो पा रहा है।उसी समय भौमासुर का छोड़ा हुआ बाण देवी सत्यभामा के हाथ में जाकर लगता है। सत्यभामा के हाथ से खून बहने लगा। तब वह कुपित होकर कहने लगी। हे
स्वामी! इस दुष्ट दैत्य का संहार कीजिए। प्रभु भी तो सत्यभामा से ही कहलवाना चाहते थे। तब ऐसा कहने पर भगवान श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र को आदेश दिया। और सुदर्शन ने भौमासर का सिर धड़ से अलग करके उसका प्राणांत कर दिया। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी, देवदुंदुभीयां बजने लगी,। श्री कृष्ण की जय जयकार होने लगी।।
वाहि मारि सुंदरि सब ल्याऊं, सुरपति छत्र तहां पहुंचाऊं।
जाय अदिति के कुंडल दे हौ, निर्भय राज इन्द्र को कैहौं।।
कुछ काल पहले भगवान श्री कृष्ण ने स्वर्ग से कल्पवृक्ष का फुल लाकर देवी रुक्मणी को दिया था। तब सत्यभामा कुछ रुष्ट हो गई थी। तब प्रभु ने उसे मनाते हुए कहा था कि समय आने पर में देवी! मैं तुम्हारे लिए कल्पवृक्ष ही लेकर आऊंगा।आज भगवान श्री कृष्ण देवी सत्यभामा से कहते हैं। कि हे सत्यभामा! आज हम स्वर्ग चलते हैं। जहां से तुम्हारे लिए कल्पवृक्ष लेकर आएंगे। क्योंकि प्रभु जानते थे। कि इस समय सत्यभामा ही पृथ्वी देवी का अवतार है। और भोमासुर पृथ्वी का पुत्र है। तथा उसकी मृत्यु देवी पृथ्वी की आज्ञा के बिना असंभव है। इस गुप्त रहस्य को जानकर प्रभु श्री कृष्ण सत्यभामा को अपने साथ लेकर जा रहे हैं। तभी भगवान ने अपने परम वाहन गरुड़ को याद किया। तब तत्काल प्रभाव से गुरुड भगवान के सामने उपस्थित हो जाता है। तब सत्यभामा को प्रभु श्री कृष्ण गुरूड पर बिठाकर भोमासुर का वध करने के लिए निकलते हैं। जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण प्रागज्योतिपुर नगरी में पहुंचे। वहां जाकर देखा तो प्रागज्योतिषपुरी के पहाड़ों का वायु, अग्नि, शस्त्रो का परकोटा बना हुआ है। तब पहले भगवान श्री कृष्ण ने अपने आयुध से पहाड़ों के परकोटे को नष्ट किया। फिर वायु व अग्नि के पहरे को नष्ट करके भगवन आगे बढ़ने लगे। तब मुर नाम का दैत्य जिसके पांच मुख थे। वह अपनी विशाल सेना के साथ भगवान श्री कृष्ण को प्रागज्योतिष पूरी नगरी में जाने से रोकता है।
मौतें बलि कौन जग और, वाहिं देखिहौं मैं यहि ठौर।।
भगवान ने उस मुर नामक दैत्य का संहार किया। उसके पांचो सिरो को धड़ से अलग करके, उसकी सेना का संहार किया। फिर अंदर प्रवेश करने लगे। तब भोमासुर को ज्ञात हुआ। कि कृष्ण ने का मुर सेनापति सहित सेना का संहार कर दिया।
तब मुर के पांच पुत्र सेना के साथ श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिए आते हैं। वहां भयंकर युद्ध होने लगा। लेकिन प्रभु ने सभी दुष्टों का सेना सहित संहार किया। तब भोमासुर को ज्ञात हुआ कि कृष्ण किसी के रुके नहीं रुक रहे हैं। तब वह स्वयं अपने विशालकाय सेना के साथ श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिए आता है। और श्री कृष्ण के साथ अनेक प्रकार से मायावी युद्ध करने लगता है।
काढिं खड़ग भोमासुर लियो, कोपिहंकारि कृष्ण उरदियो।
करै शब्द अवधि अति मेघ समान, अरे गंवार न पावै जान।।
करकस वचन तहां बच्चरै,महा युद्ध भौमासुर करै।।
भयंकर युद्ध होता रहा। भगवान श्री कृष्ण के लाख जतन करने पर भी भोमा सुर का वध नहीं हो पा रहा है।उसी समय भौमासुर का छोड़ा हुआ बाण देवी सत्यभामा के हाथ में जाकर लगता है। सत्यभामा के हाथ से खून बहने लगा। तब वह कुपित होकर कहने लगी। हे
स्वामी! इस दुष्ट दैत्य का संहार कीजिए। प्रभु भी तो सत्यभामा से ही कहलवाना चाहते थे। तब ऐसा कहने पर भगवान श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र को आदेश दिया। और सुदर्शन ने भौमासर का सिर धड़ से अलग करके उसका प्राणांत कर दिया। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी, देवदुंदुभीयां बजने लगी,। श्री कृष्ण की जय जयकार होने लगी।।
सौलह हजार सो राजकुमारियों से श्री कृष्ण का विवाह -:
इस प्रकार हे राजन! जब दुष्ट भौमासुर मारा गया। तब भौमासुर की पत्नी अपने पुत्रों को आगे करके हाथ जोड़ भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना करने लगी, दंडवत प्रणाम करने लगी और कहने लगी। हे प्रभु! हम आप के प्रभाव को जान चुके हैं। आप नारायण हो, आपने हम पर बड़ी कृपा की जो हमारे घर पधार कर मेरे स्वामी को वैकुंठ लोक में स्थान प्रदान किया। अब आप कृपा करके मेरे भवन पधारिए। तब भगवान श्री कृष्ण बाणासुर की पत्नी के कहने पर, देवी सत्यभामा के साथ भौमासुर के भवन पधार हैं। वहां भौमासुर की पत्नी ने उनका बहुत ही सुंदर स्वागत सत्कार अभिनंदन किया। फिर भगवान श्री कृष्ण ने भोमासुर द्वारा बंदी बनाई हुई अविवाहित सोलह हजार सो राजकुमारियों को कारागृह के बंधन से मुक्त किया। वे राजकुमारियां भगवान श्रीकृष्ण को देख कर उनको
प्रियतम भाव से निहारने लगी। हाथ जोड़कर कहने लगी।भगवन!दुष्ट भौमासुर ने हमें यहां बंदी बना कर रख रखा था। अब लौकीक संसार में हमें कौन स्वीकार करेगा। हमारी आपसे प्रार्थना है कि आप हमें अपने चरणों में सेवा करने का अवसर अवसर प्रदान करें। तो भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो कर अपनी स्वीकृति प्रदान करते हैं।
सभी राजकुमारियां अपने को धन्य मानने लगी। फिर भगवान श्री कृष्ण के कहने पर भौमासुर के पुत्र ने संपूर्ण राजकुमारयो को द्वारिका भेजने का उचित प्रबंध किया। इस प्रकार समस्त राजकुमारियों को भगवान श्री कृष्ण द्वारिका भेजकर स्वयं प्रागज्योतिपुर नगरी से भौमासुर के पुत्र को राजा बना कर स्वयं माता अदिति के कुंडल देवराज इंद्र का छत्र लेकर स्वर्ग लोक जाते हैं। जहां माता अदिति को कुंडल व देवराज इंद्र को उसका छत्र लौटाते हैं।
देवराज इंद्र माता अदिति सहित समस्त देवी देवता भगवान श्री कृष्ण की सुंदर स्तुति गान करते हैं। और उनको बारंबार धन्यवाद प्रदान करते हैं।।
प्रियतम भाव से निहारने लगी। हाथ जोड़कर कहने लगी।भगवन!दुष्ट भौमासुर ने हमें यहां बंदी बना कर रख रखा था। अब लौकीक संसार में हमें कौन स्वीकार करेगा। हमारी आपसे प्रार्थना है कि आप हमें अपने चरणों में सेवा करने का अवसर अवसर प्रदान करें। तो भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो कर अपनी स्वीकृति प्रदान करते हैं।
सभी राजकुमारियां अपने को धन्य मानने लगी। फिर भगवान श्री कृष्ण के कहने पर भौमासुर के पुत्र ने संपूर्ण राजकुमारयो को द्वारिका भेजने का उचित प्रबंध किया। इस प्रकार समस्त राजकुमारियों को भगवान श्री कृष्ण द्वारिका भेजकर स्वयं प्रागज्योतिपुर नगरी से भौमासुर के पुत्र को राजा बना कर स्वयं माता अदिति के कुंडल देवराज इंद्र का छत्र लेकर स्वर्ग लोक जाते हैं। जहां माता अदिति को कुंडल व देवराज इंद्र को उसका छत्र लौटाते हैं।
कुंडलदिये अदिति को ईश,छत्र धरयो सुरपति के शीश।।
देवराज इंद्र माता अदिति सहित समस्त देवी देवता भगवान श्री कृष्ण की सुंदर स्तुति गान करते हैं। और उनको बारंबार धन्यवाद प्रदान करते हैं।।
स्वर्ग से देवराज इंद्र का अपमान करके कल्पवृक्ष लाना -:
इस प्रकार हे राजन! जब भगवान श्री कृष्ण देवताओं को उनका स्वर्ग व माता आदित्य को कुंडल लौटा देते हैं। तब सभी देवता बड़े प्रसन्न होते हैं। उसी क्रम में भगवान श्री कृष्ण देव ऋषि नारद से देवराज इंद्र को कहलवाया कि, देवर्षि आप जाकर देवराज इंद्र से कहिए। कि मैं देवी सत्यभामा को प्रसन्न करने के लिए कल्पवृक्ष लेने आया हूं। इसलिए आप मुझे कल्पवृक्ष प्रदान कीजिए। तब नारद जी भगवान श्री कृष्ण के कहने पर देवराज इंद्र से जाकर के निवेदन किया। कि प्रभु श्री कृष्ण स्वर्ग के नंदनवन से कल्पवृक्ष लेने आए हैं। तब देवराज इंद्र कुछ भी नहीं कह सका, लेकिन देवराज इंद्र की पत्नी शचि ने देवराज इंद्र को भगवान श्री कृष्ण को कल्पवृक्ष देने से मना कर दिया।
इंद्राणी सुनि कहै रिसाय, सुरपति तेरी कुमति न जाय।तू है बड़ों मूढपति अंधु,को है कृष्ण कौन को बंधु।।
तब देव ऋषि नारद ने आकर भगवान श्री कृष्ण को कह सुनाया। तब द्वारिकाधीश कुपित होकर स्वर्ग के नंदनवन से कल्पवृक्ष को उखाड़ लेते हैं। जैसे ही देवराज इंद्र को पता लगा कि कृष्ण मेरी इच्छा के विरुद्ध नंदनवन से कल्पवृक्ष लेकर कर जा रहे हैं। तब ऐरावत हाथी पर बैठकर देव सेनाओं के साथ भगवान श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिए आता है। तभी देवर्षि नारद ने देवराज इंद्र को कहा। हे देवराज! तुम यह क्या करने जा रहे हो। तुम्हें ज्ञात है कि अभी अभी प्रभु ने तुमको बंधन से मुक्त किया है। तुमको युद्ध करना ही था। तो भौमासुर से करते। क्यों चोरों की तरह छुप कर बैठे हुए थे।श्री कृष्ण वही है जिन्होंने भोमासुर का वध करके तुम देवताओं को बंधन से मुक्त किया है। और ब्रज में भी तुमने उसका उनका प्रभाव देख ही लिया है। और भी उनसे युद्ध लड़ने के लिए तैयार हो रहे हो। लज्जा नहीं आती तुमको ऐसा कार्य करते। इस प्रकार देवराज इंद्र लज्जित होकर मार्ग से ही लौट आता है।वेदोक्त रीति से श्री कृष्ण का सोलह हजार सो राजकुमारियों के साथ विवाह संपन्न -:
इस प्रकार हे राजन! भगवान श्री कृष्ण देवी सत्यभामा को प्रसन्न करने के लिए भौमासुर का वध कर, स्वर्ग के नंदनवन से कल्पवृक्ष लेकर आते हैं। और द्वारिका में देवी सत्यभामा के भवन में कल्पवृक्ष को रखवा देते हैं। तत्पश्चात जैसा कि मैंने पहले बताया था कि सोलह हजार सो राजकुमारियों को प्रभु ने द्वारिका में पहले ही भेज दिया था। तब महाराज उग्रसेन की सहमति से वेदोक्त रीति से समस्त राजकुमारियों के साथ विवाह संपन्न करवाते हैं।
इस प्रकार श्री कृष्ण अपनी प्रत्येक रानी के साथ अलग-अलग रूप में रहते हैं। किसी भी रानी को यह महसूस नहीं होता, कि प्रभु मेरे पास नहीं है। जितनी रानियां थी उतनी ही स्वरूप बना कर प्रभु उनके साथ रहने लगे हैं।।
भयों वेद विधि मंगलाचार, ऐसे हरी बिहरत संसार।
सोलह सहस्र एक सौ गेह, रहत कृष्ण कर परम स्नेह।।
पट रानी आठौ जे गनी, प्रीति निरंतर तिनसे घनी।।।
इस प्रकार श्री कृष्ण अपनी प्रत्येक रानी के साथ अलग-अलग रूप में रहते हैं। किसी भी रानी को यह महसूस नहीं होता, कि प्रभु मेरे पास नहीं है। जितनी रानियां थी उतनी ही स्वरूप बना कर प्रभु उनके साथ रहने लगे हैं।।
।। जय बोलो श्री कृष्ण चंद्र भगवान की जय।।
आचार्य श्री कौशल कुमार शास्त्री
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