जय श्री राधे राधे
(३४)
आज की भागवत चर्चा में हम शाल्व व दंत वक्र नामक दैत्यो के संहार की चर्चा करते हैं। जिसमें भगवान श्री कृष्ण ने दोनों दुष्ट दैत्यो का संहार किया है। तो आइए प्रभु की इस दिव्य लीला का पान करते हैं।।
शाल्व नामक दैत्य का वध -:
शुकदेवमुनि राजा परीक्षित से कहते हैं कि हे राजन! जब भगवान श्री कृष्ण और बलराम महाराज युधिष्ठिर के इंद्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ करवा रहे थे। उसी समय श्री कृष्ण बलराम की अनुपस्थिति में शाल्व नाम का एक दैत्य जो शिशुपाल व जरासंध का मित्र था। और रुक्मणी हरण के समय श्री कृष्ण के हाथों मार खा चुका था। तब वह भगवान शिव की तपस्या कर उनसे दिव्य विमान प्राप्त किया,जो मन की गति से सर्वत्र विचरण शील था। उसे प्राप्त कर वह द्वारिका आया और द्वारिका में अनेक प्रकार के उपद्रव करने लगा। दिव्य विमान में बैठकर आकाश मंडल से पत्थर गिराने लगा। इस प्रकार द्वारिका के घर-घर में आतंक मचाने लगा। अग्रसेन जी महाराज ने कहा कि देखो द्वारिका में दुष्ट दैत्य उपद्रव मचा रहा है। तुम हमारी सेना ले जाकर इस दुष्ट दैत्य का संहार करो। तब प्रद्युम्न जी महाराज दिव्य रथ में बैठकर सेना के साथ शाल्व नामक दैत्य से युद्ध करते हैं। भयंकर युद्ध होने लगा लेकिन साल्व बड़ा मायावी था। वह किसी भी प्रकार से प्रद्युम्न व अनिरुद्ध के रोके नहीं रुक रहा था। एक समय तो उसने ऐसा बाण चलाया जिससे प्रदुम जी मूर्छित हो गए। तब प्रद्युम्न जी का सारथी दारूक पुत्र उन्हें रणभूमि से बचा कर ले आया। तब प्रद्युम्न जी की मूर्छा जागी तो बड़े कुपित होकर अपने सारथी से बोले, तुमने यह क्या किया? मुझे युद्ध भूमि से इस प्रकार से क्यों लाए? तब सारथी ब़ोला प्रभु! आप बुरी तरह से मूर्छित हो गए थे। इसलिए मेरा धर्म था कि मैं तुम्हारे किसी भी प्रकार से प्राण बचाऊ। इसलिए मैं आपको युद्ध भूमि से बचा कर ले आया। इस प्रकार पुनः कुपित होकर प्रद्धुमन साल्व से युद्ध करने लगे। लेकिन साल्व अपनी माया के प्रभाव से किसी भी प्रकार से यादव सेना से वश में नहीं हो रहा था। जब यह युद्ध निरंतर रात और दिन 27 दिन तक चलता रहा। यदुवंशी युद्ध करते-करते थक गए।जब भगवान श्री कृष्ण ने हस्तिनापुर में बैठे-बैठे सारा वृतांत समझ लिया, जान लिया। तब वे बलराम जी के साथ महाराज युधिष्ठिर से विदा होकर द्वारिका आए। जैसे ही द्वारिका में प्रवेश किया तो देखा यदुवंशियों की सेना साल्व से युद्ध कर रही है। तब बलराम जी को तो नगर की रक्षा करने के लिए भेजा, और स्वयं रथ लेकर दुष्ट साल्व के सामने आ खड़े हुए। और पाञ्चजन्य शंख की ध्वनि करने लगे। भगवान श्री कृष्ण को देखकर साल्व बड़ा भयभीत होने लगा और भगवान से युद्ध करने लगा। भगवान श्री कृष्ण ने अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र शस्त्र चलाने लगे। एक समय तो साल्व ने अपनी माया से वासुदेव जी का सिर काट कर के दिखाया। इस माया को देख करके कुछ समय के लिए भगवान श्री कृष्ण मूर्छित हो गए, फिर अपनी दिव्य दृष्टि से जाना की दुष्ट ने माया का सिर बना करके मुझे भ्रमित किया है। तब देखते-देखते भगवान श्री कृष्ण ने अपने दिव्य सुदर्शन चक्र से दुष्ट दैत्य साल्व का सिर धड़ से अलग कर दिया। जैसे ही उसका सिर धड़ से अलग हुआ। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी सभी यदुवंशी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे।।
दन्तवक्र वध -:
इस प्रकार शुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहने लगे, हे राजन! जैसे ही साल्व नामक दैत्य का वध हुआ। तो उसका मित्र दंत वक्र भी सेना लेकर द्वारिकापुरी को घेरकर युद्ध करने के लिए आ जाता है।
परो नगर कोलाहल भारी,सुनि पुकार रथ चढ़े मुरारी।।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरा परम शत्रु दंतवक्र मुझ से युद्ध करने के लिए आया है। तब भगवान श्रीकृष्ण दुष्ट दंत वक्र पर अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रों की वर्षा करने लगते हैं। दंत वक्र भी माया का सहारा लेकर श्री कृष्ण से युद्ध करने लगा। लेकिन अंत में भगवान श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से दुष्ट
दंतवक्र की भुजाओं का छैदन करते हुए उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। दंत वक्र का वध होते ही आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। जय घोष की ध्वनि होने लगी और उसके शरीर से एक दिव्य ज्योति निकलकर भगवान श्रीकृष्ण में समा गई।।
फूले देव पुष्प वर्षावै, किन्नर चारण हरियश गावै।
सिद्ध साध्य विद्याधर सारे, जय-जय चढ़े विमान पुकारे।।
बलराम जी का तीर्थाटन व सूतजी का वध -:
शुकदेव मुनि कहते हैं कि हे राजन! इस प्रकार एक दिन जब कौरव और पांडवों का युद्ध होने वाला था। उस समय भगवान श्री कृष्ण तो हस्तिनापुर जा रहे थे और बलराम जी ने कहा कि मैं कौरव पांडवों के युद्ध में किसी भी प्रकार से भाग नहीं लूंगा। इसलिए मैं तीर्थाटन की यात्रा करना चाहता हूं। तब भगवान बलराम जी नैमिषारण्य होते हुए तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ते हैं ।जैसे ही बलरामजी नैमिषारण्य में पहुंचे वहां उन्होंने देखा कि ऋषि मुनि यज्ञ कर रहे हैं। और उधर शौनक आदि ऋषि नीचे बैठे हुए हैं और व्यास गद्दी पर सूतजी महाराज बैठ कर उनको कथा का पान करवा रहे हैं। जैसे ही बलराम जी वहां पहुंचे तो सभी ऋषियों ने खड़े होकर उनका स्वागत सत्कार किया लेकिन सूतजै अपने आसन से खड़े नहीं हुए तब बलराम जी को क्रोध आया और वे कहने लगे।
आसन गर्व मूढ मन धरयो, उठि प्रणाम तुमको नहीं करयो।
यही नाथ याको को अपराध, परी चूक हैं तो यही साध।।
सुतहि मारे पातक होय, जग में भलो कहै नहीं कोय ।
निष्फलवचन न जायतिहारो, यह तुमनिजन्माहिं विचारों।।
अरे इसे किसने व्यास गद्दी पर बिठा दिया। यह मूर्ख है यह अज्ञानी है। यह अभिमान से युक्त होकर अपने को बड़ा ब्रहम ज्ञानी मान रहा है। ऐसा कहते हुए बलरामजी ने दुर्वा के प्रहार से सूतजी का सिर धड़ से अलग कर दिया। सूतजी का सिर धड़ से अलग होने पर सभी ऋषि बडे दुखी हुए और कहने लगे बलराम जी आपने हमारा अनर्थ कर दिया। क्योंकि सूतजी हमें कथा पान करवा रहे थे। तब बलराम जी ने सूतजी कै पुत्र को बुला करके कहा कि पुत्र ही पिता की आत्मा होता हैं। अतः सूत जी के स्थान पर उनका पुत्र आपको कथा पान कराएगा। और यह अपने पिता से भी अधिक ज्ञानी होंगे। इस प्रकार बलराम जी को ब्रह्म हत्या लग गई। अतः इसका मार्जन करने के लिए तीर्थ यात्रा करने के लिए आगे बढ़ने लगे। उसी समय बल्लवल नामक राक्षस आकाश में गर्जना करता हुआ भयंकर आंधी चलाने लगा और आकाश से रक्त व मल मूत्र की वर्षा करने लगा। इस प्रकार से यज्ञ को विध्वंस करने लगा। तब बलराम जी ने देखते ही देखते अपने प्रिय आयुध हल से बल्लवल का सिर फोड़ दिया जिससे उसका प्रांत हो गया।
फूटयो मस्तक छूटे प्राण, रुधिर प्रवाह भयो थिहीथान।
कर भुजडारि परयो विकरार, निकले लोचन राते वार।।
तत्पश्चात बलराम जी तीर्थ यात्रा करते हुए भूमंडल की यात्रा करने लगे। अंत में यात्रा करते करते कुरुक्षेत्र में पहुंचते हैं। जहां कौरव और पांडवों का युद्ध समापन की ओर था। भीम और दुर्योधन का गदा युद्ध होने वाला था। उसी समय बलराम जी कुरुक्षेत्र में पहुंचे। बलराम जी को आया हुआ देखकर सभी योद्धाओं ने बलराम जी का स्वागत सत्कार प्रणाम किया। दुर्योधन अति प्रसन्न होकर अपने गुरु बलराम जी के श्री चरणों में शीश नवाया और उनका आशीर्वाद लेकर युद्ध भीम से गदा युद्ध करने लगा। तब भगवान श्री कृष्ण के इशारे पर भीम ने दुर्योधन की जंघा तोड़ दी। इसे देखकर बलरामजी का कोप बढ़ गया। और इस अनीति के कारण भीम का वध करने के लिए तैयार हो जाते हैं।तब श्री कृष्ण ने बलराम जी को समझाया कि कौरवों ने अनीति कर पांडवों को बड़ा कष्ट पहुंचाया है। और इन्होंने जन्म से ही अधर्म का मार्ग अपनाया है। इसलिए बलदाऊ आपको इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। तत्पश्चात बलराम जी महाराज वहां से पुनः ब्रह्म हत्या का निवारण करने के लिए नैमिषारण्य में चले जाते हैं। और वहां स्नान दान दक्षिणा देकर पुरोहित के द्वारा ओम करवाते हैं। ब्राह्मणों को भोजन करवाकर पवित्र होकर ब्रह्महत्या से निवृत्त होकर द्वारिका आते हैं।
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