राजा नल दमयंती कथा भाग - 3

जय श्री राधे राधे

जैसा कि हमने राजा नल दमयंती कथा भाग 2 में जाना कि राजा नल जुआ में संपूर्ण राज पाठ हार कर रानी दमयंती के साथ एक वस्त्र पहनकर वन वन भटकते रहे और उनके वस्त्र को भी कलयुग व द्वापर ने हंसों का रूप धारण कर चुरा लिया। तो आइए इसके आगे की कथा को गति प्रदान करते हैं।

राजा नल का दमयंती को त्यागना, दमयंती को संकटों से बचते हुए दिव्य ऋषियों के दर्शन और राजा सुबाहु के महल में निवास -:

बृहद श्वजी युधिष्ठिर से कहते हैं। हे युधिष्ठिर! उस समय राजा नल के शरीर पर वस्त्र नहीं था। और तो क्या धरती पर बिछाने के लिए एक चटाई भी नहीं थी। शरीर धूल से लथपथ हो रहा था। भूख प्यास की पीड़ा अलग ही थी। राजा नल जमीन पर ही सो गए। दमयंती के जीवन में भी कभी ऐसी परिस्थिति नहीं आई थी। वह सुकुमारी थी, वही सो गई। दमयंती के सो जाने पर राजा नल की नींद टूटी। सच्ची बात तो यह थी कि वह दुख और शोक की अधिकता के कारण सुख की नींद सो भी नहीं सकते थे। आंखें खोलने पर उनके सामने राज्य के छिन जाने सगे संबंधियों से  छूटने और पक्षियों के द्वारा वस्त्र लेकर उड़ जाने के दृश्य एक-एक करके आने लगे। वे सोचने लगे कि दमयंती मुझ पर बड़ा प्रेम करती है। प्रेम के कारण ही वह इतना दुख भी भोग रही है। यदि मैं इसे छोड़ कर चला जाऊंगा तो यह अपने पिता के घर चली जाएगी। मेरे साथ तो इससे दुखी दुख भोगना पड़ेगा यदि मैं छोड़कर चला जाऊं तो संभव है इसे सुख भी मिल जाए। राजा नल ने यह निश्चय किया कि उसको छोड़कर चले जाने में ही भलाई है।दमयंती सच्ची पतिव्रता है। कोई भी इसके सतितत्व भंग नहीं कर सकता। इस प्रकार त्यागने का निश्चय करके सतित्व की और की निश्चिन्त होकर  विचार किया। कि मैं नंगा हूं। दमयंती के शरीर पर भी केवल एक ही वस्त्र है। फिर भी इस के वस्त्र में से आधा भाग फ़ाड़ लेना ही श्रेष्ठ है। परंतु फाडु कैसे शायद यह जग जाए। वे धर्मशाला में इधर-उधर घूमने लगे  उनकी दृष्टि एक तलवार पड़ी उसे उठा लिया और धीरे से आधा वस्त्र फाड़कर अपना शरीर ढक लिया। राजा नल उसे छोड़कर निकल पड़ू थोड़ी देर बाद लौट आए और दमयंती को देख कर रोने लगे।

वे सोचने लगे कि अब तक मेरी प्राणप्रिया अंतपुर के पर्दे में रहती थी। इसे कोई छू भी नहीं सकता था। आज अनाथ के समान आधा वस्त्र पहने धूल में सो रही है। यह मेरे बिना दुखी होकर वन में कैसे फिरेगी। प्रिये! तू धर्मात्मा है। इसलिए आदित्य वसु, रुद्र, अश्विनी कुमार और पवन देवता तेरे रक्षा करें। उस समय राजा नल का हदेय दुख के मारे टुकड़े-टुकड़े हुआ जा रहा था। वह झूले की तरह बार-बार धर्मशाला से बाहर निकलते और फिर लौट आते। शरीर में कलयुग का प्रवेश होने कारण बुद्धि नष्ट हो गई थी। इसलिए अंतत वे अपनी प्राण प्रिया पत्नी को वन में अकेली छोड़कर वहां से चले गए।

जब दमयंती की नींद टूटी तब उसने देखा कि राजा नल वहां नहीं है। वह आशंका से भर कर पुकारने लगी कि है महाराज! स्वामी! मेरे सर्वस्व आपका है मैं अकेली डर रही हूं आप कहां गई बस अब अधिक हंसी नहीं कीजिए। मेरे कठोर स्वामी मुझे क्यों डरा रहे हैं। शीघ्र दर्शन दीजिए, मैं आपको देख रही हूं। लो यह देख लिया।  बताओ कि आप लताओं की आड़ में छुप कर चुप क्यों हो रहे हैं। मैं दुख में पड़कर इतना विलाप कर रही हूं। और आप मेरे पास आकर धीरज भी नहीं देते। स्वामी! मुझे अपना या किसी का शौक नहीं, मुझे केवल इतनी ही चिंता है कि आप इस घोर जंगल में अकेले कैसे रहेंगे। हां नाथ! निर्मल चित्त वाले आपकी जिस पुरुष ने यह दशा की है। वह आप से भी अधिक दुर्दशा को प्राप्त कर निरंतर दुखी जीवन बितावे।

 दमयंती इस प्रकार विलाप करती हुई इधर उधर दौडने लगी। वह उन्मत्त सी होकर इधर-उधर घूमती हुई एक अजगर के पास जा पहुंची। शोक ग्रस्त होने कारण उसे इस बात का पता भी नहीं चला। अजगर दमयंती को निकलने लगा। उस समय भी दमयंती चित में अपनी नहीं,  राजा नल की ही चिंता थी। वह अकेले कैसे रहेंगे, वह पुकाने लगी स्वामी! मुझे अनाथ की भांति यह अजगर निकल रहा है। आप मुझे छुड़ाने के लिए क्यों नहीं दौड़ आते। दमयंती की आवाज एक विवाद के कान में पड़ी।वह  उधर ही घूम रहा था। वह वहां दौड़कर आया और यह देखकर की दमयंती को अजगर निकल रहा है। वह अपने सस्त्र से अगर का मुंह चिर डाला। उसने दमयंती को छुड़ाकर नहलाया आश्वासन देकर भोजन कराया। दमयंती कुछ शांत हुई।तो व्याग्र ने पूछा सुंदरी! तुम कौन हो? किस कष्ट में पढ़कर किस उद्देश्य से यहां आई हो। दमयंती ने ब्याध से अपना कष्ट कहानी कह दी। दमयंती की सुंदरता बोलचाल और मनोहरता देकर व्याध काम मोहित हो गया। वह मीठी मीठी बातें करके दमयंती को अपने बस में करने की चेष्टा करें लगा। दमयंती दुरात्मा व्याध के मन का भाव जानकर क्रोध के आवेश से  प्रज्वलित हो गई। दमयंती ने व्याध  के बलात्कार की चेष्टा को बहुत रोकना चाहा। परंतु जब वह किसी भी प्रकार न माना। तब उसने उसे श्राप दे दिया। यदि मैंने  राजा नल को छोड़कर और किसी पुरुष का मन से भी चिंतन नहीं किया हो तो यह पापी व्याध मर कर जमीन पर गिर पड़े। दमयंती के मुंह से ऐसी बात निकलते ही व्याध के प्राण पखेरू उड़ गए। वह जले हुए ठूंट की तरह पृथ्वी पर गिर पड़ा।

व्याध के मर जाने पर दमयंती राजा नल को ढूंढती हुई एक निर्जन और भयंकर वन में जा पहुंची। बहुत से पर्वत, नदी,  जंगल हिंसकपशु पिशाच आदि को देखती हुई और वीरह के उन्माद में उसने राजा नल का पता पूछती हूई उत्तर की ओर बढ़ने लगी। तीन दिन  और तीन रात बीत जाने के बाद दमयंती ने  देखा कि सामने ही एक बड़ा सुंदर तपोवन है।  उस आश्रम में वशिष्ठ, भृगु, और अत्रि के समान मित भौजी संयमी. पवित्र जितेंद्रीय तपस्वी निवास कर रहे हैं। वृक्षों की छाल धारण किएथे। दमयंती को कुछ धैर्य मिला, उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ तपस्वी ऋषि यों को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। ऋषि यों ने स्वागत है कहकर दमयंती का सत्कार किया और बोले बैठ जाओ हम तुम्हारा क्या काम करें। दमयंती ने भद्र महिला के समान पूछा आपकी तपस्या अग्नि धर्म और पशु पक्षी तो सकुशल है ना आपके धर्माचरण में तो कोई भी विघ्न नहीं पड़ता। ऋषि यो ने कहा कल्याणी! हम तो सब प्रकार से सकुशल है। तुम कौन? हो किस उद्देश्य से यहां आती हो? हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। क्या तुम पर्वत नदी की अधिष्ठात्री देवताओं में कोईदेवी देवता तो नहीं हो। दमयंती ने कहा मैं एक मनुष्य स्त्री हूं। मैं विदर्भ नरेश राजा भीम की पुत्री हूं बुद्धिमान यशस्वी एवं वीर विजय निषद नरेश महाराज नल मेरे पति हैं। कपट जुआ के विशेषज्ञ एवं दुरात्मा पुरुषों ने मेरे धर्मात्मा पति को जुआ खेलने के लिए उत्साहित करके उनका राज्य और धन ले लिया। मैं उनकी ही पत्नी दमयंती हूं। संयोगवश वे मुझसे बिछड़ गए।मैं उन्हीं रणबांकुरे शस्त्र विद्या में निपुण महात्मा पतिदेव को ढूंढने के लिए वन वन भटक रही हूं। मैं यदि उन्हें शीघ्र ही नहीं देख पाओगी, तो जीवित नहीं रह सकूंगी। उनके बिना मेरा जीवन असफल है। वियोग  के दुखों को मैं कब तक सह सकूंगी। तपस्वीयो ने कहा कल्याणी! हम अपनी तब शुभ दृष्टि से देख रहे हैं। तुम्हें आगे बहुत सुख मिलेगा और थोड़े ही दिनों में राजा नल का दर्शन होगा। धर्मात्मा निषद नरेश थोड़े ही दिनों में समस्त दुखों से छूटकर संपत्ति शाली निषाद  देश पर राज्य करेंगे। उनके शत्रु भयभीत होगे। मित्र प्रसन्न होंगे और कुटुंब उन्हें अपने बीच में पाकर आननदित होगे। इस प्रकार कहकर वे सारे तपस्वी अपने आश्रम के साथ अंतर्ध्यान हो गए। यह आश्चर्य की घटना देखकर दमयंती को बड़ा आश्चर्य हुआ।  वह सोचने लगी कि मैंने स्वप्न देखा है क्या ?यह कैसी घटना हो गई। वे तपस्वी आश्रम कहू गए। दमयंती फिर उदास हो गई उसका मुख मुरझा गया।


 वहां से चलकर दमयंती एक अशोक वृक्ष के पास पहुंची। उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे।उसने अशोक वृक्ष से गदगद स्वर में कहा शोक रहित अशोक! तू मेरा शौक मिटा दे ,क्या कहीं तू ने राजा नल को शौक रहीत देखा। अशोक! तू अपनी शौक नाशक नाम को सार्थक कर। दमयंती ने अशोक की प्रदक्षिणा की ओर  आगे बड़ी। भयंकर वन में अनेकों वृक्ष गुफाओं पर्वतों के सीकर और नदियों के आसपास अपने पति को ढूंढती हुई दमयंती बहुत दूर निकल गई। वहां उसने देखा कि बहुत से हाथी घोड़ो के साथ व्यापारियों का एक झुंड आगे बढ़ रहा है। व्यापारियों के प्रधान से बातचीत करके और यह जानकर कि व्यापारी राजा सुबाहु  के चेदि देश में जा रहे हैं।दमयंती उनके साथ हो गई। उसके मन में अपने पति के दर्शन की लालसा बढ़ती ही जा रही थी। कहीं दिनों तक चलने के बाद  व्यापारी एक भयंकर वन में पहुंचे। वहां एक बड़ा ही सुंदर सरोवर था। लंबी यात्रा के कारण सब लोग थक गए। इसलिए उन लोगों ने वही पडाव डाल दिया। देव व्यापारियों के प्रतिकूल था। रात के समय जंगली हाथी व्यापारियों के हाथीयो पर टूट पड़े और उनकी भगदड़ में सब के सब व्यापारी नष्ट भ्रष्ट हो गए। कोलाहल सुनकर दमयंती की नींद टूटी वहां का दृश्य देकर बावली सी हो गई। उसने कभी ऐसी घटना नहीं देखी थी। वह वहां से भाग निकली जहां कुछ बचे हुए मनुष्य खड़े थे। वहां जा पहुंची। तदन्तर दमयंती वेद पाठी और संयमी  ब्राह्मणों के साथ जो उस समय महासंघार से बच गए थे। आधा वस्त्र धारण के

किये चलने लगी और सांयकाल के समय चेदि नरेश राजा सुबाहु की राजधानी में जा पहुंची।राजधानी के राजपथ पर चल रही थी।नागरिकों ने यह समझा कि कोई बाबली स्त्री है। छोटे-छोटे बच्चे उसके पीछे लग गए। दमयंती राजमल के पास जा पहुंची। उस समय राजमाता राजमल की खिड़की में बैठी हुई थी। उन्होंने बच्चों से घिरी दमयंती को देखकर धाय से कहा देख तो यह स्त्रि बड़ी दुखिया मालूम पड़ती है। अपने लिए कोई आश्चर्य ढूंढ रही है। बच्चे उसे दुख दे रहे हैं। तू जा, इसे मेरे पास ले आओ। यह सुंदर तो इतनी है मानो मेरे महल को भी दमका देगी।नाम ने आज्ञा पालन किया, दमयंती राजमहल में आ गई। राजमाता ने दमयंती का सुंदरता देकर पूछा देखने में तो तुम दुखिया जान पड़ती हो, तब भी तुम्हारा शरीर इतना तेजस्वी कैसे हैं बताओ?बताओ तुम कोन हो? किसकी पत्नी हो? असहाय अवस्था में भी किसी से डरती क्यों नहीं हो? दमयंत ने कहा मैं एक पतिव्रता नारी हूं। मैं हूं तो कुलीन परंतु दासी का काम करती हूं। अंतापुर में रह चुकी हूं। मैं कहीं भी रह जाती हूं। फल मुल खाकर दिन बिता देती हूं। मेरे पतिदेव बहुत गुणी है। और मुझसे भी बहुत प्रेेम करते हैं। मेरे अभाग्य की बात है कि वे मुझे बििान किसी अपराध के रात के समय मुझे छोड़ कर चले गए। मैं रात दिन अपने पति को ढूंढती और उनके वियोग में जलती रहती हूं। इतना कहते-कहते दमयंती की आंखों में आंसू उमड़ आए। दमयंती के दुख भरे विलाप से राजमाता का जी भर आया और कहने लगी कल्याणी! मेरा तुम पर स्वभाविक ही प्रेम हो रहा है। तुम मेरे पास रहो, मैं तुम्हारे पति को ढूंढने का प्रबंध करूंगी। जब वे आवे तब तुम उनसे यहां मिलना। दमयंती ने कहा माताजी में एक शर्त पर आपके घर रह सकती हूं। मैं कभी झूठा नहीं खाऊंगी। किसी के पैर नहीं छहूंगी और पर पुरुष के साथ किसी प्रकार भी बातचीत नहीं करूंगी। यदि कोई पुरुष मुझसे दुष्ट चेस्टा करें तो उसे दंड देना होगा। बार-बार ऐसा करने पर उसे प्राण  दंड भी देना होगा। मै अपने पति को ढूंढने के लिए ब्राह्मणों से बातचीत करती रहूंगी। आप यदि मेरी यह शर्त स्वीकार करें तो मैं रह सकतीी हूं अन्यथा नहीं। राजमाता दमयंती केे नियमों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुई। और बोली ऐसा ही होगा। तदनंतर उन्होंनेे अपनी पुत्री सुनंदाा को और कहां कीी बेटी इस दासी को तुम देवी समझना । यह अवस्था में तुम्हारेेेे बराबर की है। इसलिए इसे सखी के समान राज महल में रखो और प्रसन्नता के साथ इससे मनोरंजन करती रहो। सुनंदााााााा प्रसन्नता के साथ दमयंती को अपने महल में ले गई। दमयंती अपने नियमों के अनुसार राजभवन में रहने लगी।


शेष कथा पार्ट 4 में


आचार्य श्री कोशल कुमार शास्त्री



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