ग्रह व लग्नादि द्वादश भावों का शुभाशुभ विवेचन

 ज्योतिष शिक्षण अध्याय =5


ग्रह व लग्नादि द्वादश भाव का शुभाशुभ विवेचन -:

महर्षि पाराशर जी ने लघु पाराशरी में सूर्यादि नवग्रह व द्वादश लग्नादि भाव का शुभाशुभत्वम को इस प्रकार विवेचन किया है।

ग्रहों का शुभाशुभ स्वभाव -: 

पाराशर जी ने लिखा है कि ग्रहों के दो समूह होते हैं। एक शुभ व दुसरा अशुभ इनको देवता और राक्षस समूह के नाम से भी कहा गया है। देवता समूह में सूर्य, चंद्रमा, मंगल, और बृहस्पति आते हैं। अतः ये चारों  ग्रह शुभ  माने गए हैं। और राक्षस समूह में , बुध,शुक्र,शनी, राहु केतु ये पांच ग्रह राक्षसों के माने गए हैं।

इसी प्रकार ग्रहों में सूर्य को राजा, चंद्रमा को रानी, मंगल को सेनापति और गुरु को मंत्री, बुध को राजकुमार, शुक्र को भी मंत्री, और शनी को सेवक प्रजा की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार देवता समूह में चार ग्रहों में से सूर्य और मंगल का स्वभाव उग्र होता है और चंद्रमा व बृहस्पति का स्वभाव शांत होता है। तथा राक्षस समूह में शुक्र और बुध का स्वभाव शांत होता है व शनि, राहु, केतु का स्वभाव उग्र होता है।

लग्नादि द्वादश भाव का शुभाशुभ विवेचन -:


जन्म कुंडली के द्वादश भाव को शुभ अशुभता की दृष्टि से चार भागों में विभाजित किया गया है।  जिसमें 1, 5,9 भाव को मूल त्रिकोण की संज्ञा दी गई है और इनको अति शुभ माना गया है। अतः इन तीनों भावो के स्वामी जन्म कुंडली के किसी भी भाव में बैठे हो वहां पर वे शुभ फल प्रदान करने वाले ही होंगे। अर्थात इन ग्रहों के स्वामी स्वाभाविक पाप ग्रह हो तब भी शुभफल ही प्रदान करेंगे । और यदि  तीनों भावो स्वामी स्वाभाविक शुभ हो तो अति शुभ फल प्रदान करने वाले होंगे।

दूसरा 3,6,11 भाव को त्रिषडायन  की संज्ञा दी गई है और इनको पाप भाव माना गया है अर्थात यदि कोई ग्रह इन तीनों भाव का स्वामी होकर कुंडली में कहीं पर भी बैठा हो तो वह सदैव अशुभ परिणाम ही देने वाला होगा। यदि कोई शुभ ग्रह भी इन तीनों भावो का स्वामी हो तब भी वे शुभ ग्रह भी अशुभ परिणाम ही देने वाले होंगे और स्वाभाविक पाप ग्रह इन के स्वामी हो तो अति विशिष्ट अशुभता देने वाले होंगे।


(1,5,9 मूल त्रिकोण का शुभ का कारण)

जिस घर में विद्या और धर्म की प्रधानता हो उस घर में पापी भी साधु बन जाता है और साधु तो अति साधु हो जाता है। अतः जिसके वश में शरीर रहता है वह भी साधु ही होता है इस प्रकार देह भाव लग्न  और  विद्या का भाव पंचम तथा  धर्म का भाव नवम भाव है। अतः 1,5,9 को अति शुभ माना गया है।

(3,6,11 त्रिषडायन का अशुभ होने का कारण)

जिस प्रकार किसी के घर में सदैव धन हो पराक्रम हो शत्रुता हो तो ऐसे घर में रहने वाले स्वभाविक साधुजन भी दुष्ट हो जाते हैं। और क्रूर तो अति क्रूर हो जाते हैं। तीसरा भाव पराक्रम, षष्टम भाव शत्रुता और एकादश भाव धन का हुआ। इसलिए इनको अशुभ माना गया है। अतः इनके स्वामी सदैव अशुभ फल प्रदान कर देने वाले होते हैं।



(4,7,10 भावो की शुभ अशुभ स्थिति)

4,7,10 भावो  को केंद्र की संज्ञा दी गई है। महर्षि पाराशर ने प्रथम भाव को त्रिकोण में माना है और अन्य ऋषियों ने प्रथम भाव को केंद्र में माना है। अतः महर्षि पाराशर जी का कथन है कि 4, 7, 10 वे भाव का स्वामी कोई शुभ ग्रह हो तब भी वह अशुभ फल देगा और इनका स्वामी कोई अशुभ ग्रह हो तो वह शुभ फल देने वाला होगा। इसका कारण यह होता है कि जिस प्रकार किसी के घर में स्थरसुख हो, सुंदर पत्नी हो, स्तर राज्य सुख हो तो ऐसा सुख वाला व्यक्ति इनमें लीन हो जाता है। और अपने वास्तविक स्वभाव को भूल जाता है इसलिए शुभ ग्रह अपना स्वभाव भूल जाते हैं और अशुभ ग्रह अपना वास्तविक स्वभाव भूल जाते हैं। इसलिए 4,7 और 10 के स्वामी ना तो शुभ फल देते हैं और ना ही अशुभफल देते हैं।



2,8,12 भाव के स्वामी अन्य ग्रहों के साहचर्य के प्रभाव से अपना  शुभ और अशुभ फल देते हैं। अर्थात इनके स्वामी जिस प्रकार शुभ अशुभ ग्रह के संपर्क में होते हैं। उसी हिसाब से इनका फल होता है।







व्ययाधिपति के अनुसार द्वादश भाव का शुभ अशुभ विवेचन -;


१, द्वितीय भाव का व्ययाधिपति लग्नेश हुआ और द्वितीय भाव धन का भाव होता है। अतः लग्नेश धन का व्यय कर रहा है और लग्नेश अपने शरीर के लिए धन का व्यय कर रहा है। तथा शरीर के लिए धन का व्यय करना शुभ ही होता है। इसलिए प्रथम भाव को शुभ माना गया है।

२, द्वितीयेश तृतीय भाव का व्ययाधिपति है। और तृतीय भाव वीरता पराक्रम आयु का भाव होता हैं।यह मारक हुआ इसलिए इसे अशुभ माना गया है।

३, तृतीयेश चतुर्थ भाव का व्ययाधिपति है। और चतुर्थ भाव माता , सुख का भाव होता है। अतः सुख का व्यय करने वाला होने के कारण  इसे भी अशुभ माना गया है।

४,चतुर्थेश पंचम भाव का व्ययाधिपति है। और पंचम भाव  विद्या व संन्तान का भाव होता है। अतः यदि चतुर्थेश शुभ होकर विद्या  का व्यय(नष्ट) करता है तो चतुर्थ भाव अशुभ हुआ और यदि चतुर्थेश अशुभ होकर पंचम भाव का व्यय करता है तो शुभ हुआ। इस प्रकार चतुर्थ भाव को उदासीन कहा गया है क्योंकि इसमें ग्रह अपने स्वभाव को भूलकर विपरीत परिणाम देने वाले होते हैं। शुभ ग्रह अशुभता देंगे औरअशुभ ग्रह शुभ फल देते हैं।


५, पंचमेश षष्टम भाव का व्ययाधिपति है और षष्टम भाव रोग व  शत्रु का होता है। अतः पंचमेश रोग व शत्रु को नष्ट करने वाला हुआ इसलिए इसे अति शुभ कहा गया।


६,षष्टमेश सप्तम भाव का व्ययाधिपति होता है और सप्तमभाव भार्या का होता है। अतः षष्टमेश पत्नी का व्यय करने वाला हुआ।  इसलिए इसे भी अशुभ  कहा गया है।

७, सप्तमेश अष्टम भाव का व्ययाधिपति है और अष्टम भाव आयु का भाव होता है। अतः सप्तमेश आयु को क्षीण करने वाला हुआ। इसलिए इसे अशुभ व मारक कहा गया है।

८, अष्टमेश नवमभाव का व्ययाधिपति है और नवम भाव भाग्य का भाव होता है। अतः अष्टमेश भाग्य को नष्ट करने वाला, भाग्य को क्षीण करने वाला हुआ। इसलिए अष्टम भाव को अशुभ कहा गया है।

९, नवमेश दशम भाव का व्ययाधिपति है और दशम भाव कर्म का भाव हुआ, तथा कर्म संसार में बंधन का कारक है। अतः नवमेश सांसारिक बंधन को काटने वाला हुआ। इसलिए अति शुभ कहा गया है।

१०, दशमेश एकादश भाव का व्ययाधिपति है, और एकादश भाव लाभ का भाव होता है। अतः यदि दशमेश शुभ हो कर भी लाभ की क्षति करता है। तो अशुभ हुआ  और यदि दशमेश पाप ग्रह होकर लाभ की क्षति करता है तो उचित है। इस प्रकार दशम भाव भी चतुर्थ भाव की तरह उदासीन हुआ क्योंकि इसमें ग्रह अपने अपने स्वभाव के विपरीत परिणाम देते हैं। शुभ ग्रह अशुभ फल देते हैं और अशुभ ग्रह शुभ फल देते हैं।

११, एकादशेश द्वादश भाव का व्ययाधिपति है और द्वादश भाव
व्यय का भाव होता है। अतः एकादशेश   धन को क्षीण करने वाला हुआ। इसलिए ग्यारहवें भाव को अशुभ कहा गया है।

१२, द्वादशेश लग्न का व्ययाधिपति होता है अतः द्वादशेश  अपने सहचर्य  ग्रह के प्रभाव से फलदायक होता ।

Note-
इस प्रकार विवेक से भी स्पष्ट हुआ कि जन्म कुंडली के (1,5,9) त्रिकोण के स्वामी शुभ फलदायक होते हैं। 

और(3,6,11)त्रिषडायन के स्वामी पाप कारक होने से अशुभ फल देने वाले होते हैं।


(४,७,१०) केंद्र के स्वामी शुभ होने पर अशुभ फल और पाप कारक होने पर शुभफल देते हैं।

(२,८,१२) भाव के स्वामी साहचर्य व स्थानांतरण से फल देते हैं।


विशेष -:

इस प्रकार जन्म कुंडली में तीन तीन भावो के 4 समूह हुए,  प्रत्येक भाव अपने समूह में बढ़ते हुए क्रम में बली होता जाता है। जैसे -त्रिकोण में(1,5,9) लग्नेश शरीर के लिए धन खर्च करने वाला होने के कारण करना इतना शुभ नहीं होता है, जितना कि रोग और शत्रु को नष्ट करना होता है, तथा रोग और शत्रु को नष्ट करने से भी अधिक सांसारिक कर्म बंधन  काटना श्रेष्ठ होता है। इसलिए लग्नेश कमबली, लग्नेश से अधिक बली पंचमेश और पंचमेश से भी अधिक बली भाग्येश हुआ।

इसी प्रकार त्रिषडायन(3,6,11) में अपने स्वभाव के अनुरूप बढ़ते क्रम में बलवान होती चले जाते हैं। जैसे -तृतीयेश सुख का नष्ट कारक इसलिए सामान्य बली और षष्टेश भार्या को नष्ट करने वाला  होने के कारण अधिक बली  और एकादशेश व्यय को रोकने वाला होने के कारण और अधिक बली हुआ। क्योंकि व्यय नहीं होने की स्थिति में व्यक्ति का जीवन वैसे ही समाप्त हो जाता है।















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