पितृरों का महत्व -:
सनातन धर्म में ही नहीं अपितु सभी धर्मों में माना जाता है कि इस जीवात्मा का कभी अंत नहीं होता है अपितु यह जीवात्मा जिस प्रकार से मनुष्य वस्त्र बदलता है उसी प्रकार से जीवात्मा भी अपना शरीर बदलती रहती है। अतः इस जीवात्मा का अस्तित्व कभी भी समाप्त नहीं होता है। जीवात्मा अजर और अमर है। जीवात्मा मरने के बाद भी किसी न किसी रूप में उसका अस्तित्व होता है। आधुनिक विज्ञान का भी मानना है कि प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व सदैव बना रहता है भले ही उस वस्तु के स्वरूप में परिवर्तन होता रहता है। इसी प्रकार से इस जीवात्मा का अस्तित्व सदैव अमर होता है अतः जब यह जीवात्मा या हमारे पूर्वज शरीर को छोड़कर चले जाते हैं। तो अपने आत्म कल्याण के लिए पितृ योनि में जन्म लेकर अपनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं और अपने पुत्र पौत्रादि के कल्याण के लिए उनकी सहायता करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है। कि जब हमारे पूर्वज अपने शरीर को छोड़कर के दूसरी योनि अर्थात पितृ योनि में चले जाते हैं जो अपने बंधु बांधव के कल्याण करने के लिए कार्य करते हैं और अपनी उन्नति अर्थात मोक्ष का मार्ग बनाते हैं।
सनातन धर्म में पितरों को संदेशवहक भी कहा गया है। अर्थात पितृ हमारी श्रद्धा भाव भक्ति व कामना को ईश्वर तक पहुंचा कर हमारे सकल मनोरथ पूर्ण करने में हमारी सहायता करते हैं। अतः पित्र हमारे और परमात्मा के बीच में सेतु का कार्य करते हैं। पितरों का सूक्ष्म शरीर से संबंध होने के कारण वे सर्वत्र वितरण शील होते हैं और हमारी श्रद्धा भाव भक्ति से प्रसन्न होकर हमारी कामना को ईश्वर तक पहुंचा कर हमारे मनोरथ पूर्ण करते हैं साथ ही पितरों में भी इतनी शक्ति होती है कि वह भी हमारी भक्ति भाव से प्रसन्न हो कर हमारी सहायता करके हमारे मनोरथ को पूर्ण करने में अपना सहयोग प्रदान करते हैं।
पितरों की अभिलाषा -:
पित्र अपने पुत्र पौत्रो से किसी प्रकार का कोई धन-दौलत नहीं मांगते हैं। अपितु उनकी एक अभिलाशा रहती है। कि उनके पुत्र पौत्र आदि उनके प्रति श्रद्धा प्रेम का भाव रखें और समय-समय पर उनके पुत्र पौत्र आदि सत्कर्म करते रहे उनके प्रति भी श्रद्धा का भाव रखकर के समय-समय पर उनके निमित्त श्राद्ध कर्म करें। जब पित्र देखते हैं कि उनके पुत्र पुत्र आदि सत्कर्म कर रहे हैं और उनके प्रति भी पूर्ण निष्ठा श्रद्धा भक्ति भाव का विचार रखते हैं तो पित प्रसन्न होकर अपने पुत्र पौत्रों पर सदैव कृपा करते हैं। और कठिनाई के समय में उनका सहयोग करते हैं।
पितृर पूजन परम्परा -:
सभी धर्मों में पित्र पूजन की परंपरा है यद्यपि अलग-अलग धर्मों में भिन्न भिन्न प्रकार से अपने पितरों का पूजन व उनके प्रति श्रद्धा भाव प्रकट किया जाता है। अतः पितरों के प्रति श्रद्धा रखना सभी धर्मों में माना गया है। इसलिए हमें हमारे पितरों के प्रति उसी प्रकार से श्रद्धा भाव रखना चाहिए जिस प्रकार से हम हमारे देवताओं व ईश्वर के प्रति लगते हैं। क्योंकि पितरों को स्थुल सहयोग की या सहायता की आवश्यकता नहीं होती अपितु सूक्ष्म भावार ना व श्रद्धा भक्ति प्रेम की आवश्यकता होती है और पित्र हमारी सूक्ष्म श्रद्धा भाव भक्ति से ही प्रसन्न होकर अपनी कृपा हम पर करते हैं।
पितृदोष -:
वह दोष जो पितरों के कारण होता है उसे पित्र दोष कहा जाता है। पितृ का अर्थ यहां पिता से नहीं अपितु हमारे पूर्वजों से हैं। जिन्होंने अपना शरीर त्याग दिया है। किंतु मोक्ष प्राप्त नहीं होने के कारण पितृलोक में रहते हैं। तथा वंशजों के प्रति बहुत ही श्रद्धा व प्रेम रखते हैं किंतु जब उनके पुत्र पौत्र आदि उनके प्रति किसी प्रकार का श्रद्धा प्रेम भक्ति नहीं रखते हैं तो पित्र कुपित हो जाते हैं और अपने ही पुत्र पौत्रों पर कुपित होकर उन्हें दुख पहुंचाने का कार्य करते हैं। जिसे पित्र दष कहा जाता है। पितर योनि में हमारे पितरों को भी साधारण मनुष्यों की तरह प्रेम मोह व भूख प्यास की अनुभूति होती है। जब हम उनको भोग व समय-समय पर उनको याद नहीं करते हैं। तो वे कुपित हो जाते हैं। पितरों के पास अनेक प्रकार की अलौकिक शक्तियां होती है जब हम उनके प्रति श्रद्धा भाव नहीं रखते हैं और वे जब कुपित हो जाते हैं तो अपनी शक्तियों के प्रभाव से हमें अनेक प्रकार के संकटों में डाल देते हैं और हमारी किसी भी प्रकार से सहायता नहीं करते हैं। जिससे हम अनेक प्रकार के दुख झेलना पड़ जाता है।
पितृदोष के लक्षण -:
जब हमारे पित्र हम पर कुपित होते हैं तो हमारे घर परिवार में अनेक प्रकार के लक्षण हमें दिखाई पड़ते हैं। जैसे घर परिवार के सदस्यों में तनाव की स्थिति बना रहना, बात ही बात में लड़ाई झगड़े होना, कर्ज का बोझ बढ़ जाना, बनते कार्यों में रुकावट आना, पुत्र पुत्री की शादी में विलंब होना, आकस्मिक दुर्घटनाएं बढ़ जाना, घर के परिवार के सदस्य का बीमार रहना, किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होना, विरोधियों का हावी होना, अनावश्यक खर्चों में वृद्धि का होना, मन में बेचैनी बनी रहना, इस प्रकार की तमाम मुसीबतें हम पर आ जाती है।
तर्पण का महत्व -:
पितरों को प्रसन्न करने में तर्पण सबसे महत्वपूर्ण साधन होता है। बेटा अपने पिता को पूत नामक नरक में जाने से बचाता है। इसलिए बेटे को पुत्र नाम की संज्ञा प्रदान की गई है। हमारे पूर्वजों के मरने के बाद हमें किसी प्रकार की आगे की यात्रा का कोई पता नहीं होता है। कि हमारे पूर्वज मरने के बाद किस योनि में गए हैं किंतु हमारा कर्तव्य बनता है कि हम हमारे पिता पर पितामह इत्यादि को जीवित भी प्रसन्न रखें और मरने के बाद भी प्रसन्न रखने के समुचित उपाय हमें करना चाहिए। तर्पण एक ऐसा उपाय होता है। भले ही हमारे पित्र किसी भी योनि में क्यों नहीं गए हो, हमारे द्वारा प्रदान किया गया तर्पण को देवता वसु आदित्य हमारी पितरों तक निश्चित रूप से पहुंचा देते हैं। चाहे हमारी पितृ किसी भी योनि में गए हो। इस प्रकार जब हम हमारे पितरों के निमित्त तिल जल से तर्पण करते हैं तो देवता हमारे द्वारा दिया गया तर्पण को हमारी पितरों तक पहुंचा देते हैं। जिससे हमारी पित्र प्रसन्न होकर
हम पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखते हैं। क्योंकि जब हम उनके लिए तर्पण करते हैं तो उनको भी बल मिलता है और उस बल के द्वारा ही वे हमारे ऊपर प्रसन्न होकर हमें सुख पहुंचाने का सतत प्रयास करते हैं।
तर्पण विधि -:
अपने पितरों के निमित्त तर्पण करने वाले दिन उपवास रखना चाहिए। तर्पण करते समय धूले हुए वस्त्र ही पहने चाहिए हो सके तो तर्पण करने से कुछ समय पहले वस्त्रों को धोकर
सुका दे और उन्हीं वस्त्रों को धारण करके तर्पण करना चाहिए।
तर्पण करने से व्यक्ति के पाप भी नष्ट हो जाते हैं। समय-समय पर अपने पितरों का तर्पण करने से उस परिवार में किसी भी प्रकार का कोई दुख , वेदना नहीं रहती है। घर परिवार में सुख समृद्धि खुशहाली प्रेम का वातावरण बना रहता है। अतः देव पूजन से भी अधिक पितरों के निमित्त तर्पण का महत्व बताया गया है। इसलिए देव पूजन में भी सबसे पहले पित्र तर्पण का महत्व बताया गया है क्योंकि पितृ ही जातक पर अपनी कल्याणमयी कृपा दृष्टि करते हैं।
पितृपक्ष में किए गए तर्पण का विशेष महत्व होता है। पितृपक्ष में तीन पीढियो तक के पिता पक्ष के और तीन पीढ़ियों के मामा पक्ष के पितरों का तर्पण किया जाता है।
तर्पण करते समय पीतल के पात्र में जल लेकर जल में गंगा जल, तिल, जौ, तुलसी, कच्चा दूध, दूर्वा, सफेद पुष्प, शहद, आदि डालकर एक लोठे से सबसे पहले देवताओं का फिर ऋषियों का तर्पण करना चाहिए तत्पश्चात अपने पितरों का तर्पण करें।
तर्पण में कुशा अर्थात पवित्री का पहना अति अनिवार्य होता है। अतः तर्पण करते समय दो कुशा की पवित्री दाहिने हाथ की अपनी अनामिका अंगुली में धारण करें तथा तीन कुशाओं से मिलाकर बनाई गई पवित्री बायी हाथ की अनामिका में धारण करें। तर्पण में कांसी, ताम्र पात्र का ही उपयोग करें लोहे के पात्र का भूल कर भी उपयोग ना करें।
श्राद्ध पक्ष में तिल कुशा सहित जल अपनी अंजलि में लेकर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके सबसे पहले देवताओं का नाम लेकर तर्पण करें और जल अर्पण करते समय तपतान्तरामि बोलते हुए मध्यमा अंगुली से जल अर्पण करें।
ऋषियों का तर्पण करते समय उत्तर दिशा की ओर मुंह करके कुशा सहित जल तिल लेकर अपनी मध्यमा अंगुली के दोनों ओर से दो बार तपतान्तरामि बोलते हुए जलांजलि देवें।
इसके बाद दक्षिण दिशा में मुंह करके सबसे पहले यमराज फिर चित्रगुप्त का नाम लेकर इसके बाद अपने सभी पितरों का नाम लेकर तीन बार तपतान्तरामि बोलते हुए अंगूठे के बगल की अंगुली व अंगूठी के बीच से जल की जला अंजलि देवे। तर्पण करते समय सबसे पहले अपने कुल के पितरों का नाम लेवे इसके बाद अपने ननिहाल पक्ष के पितरों का नाम लेवें फिर ज्ञात अज्ञात सभी पितरों का नाम लेकर जलान्जली देवें।
अंत में पूर्व दिशा की ओर मुंह करके भगवान सूर्यदेव को अर्घ्य प्रदान करें। तर्पण करने के बाद तर्पण किया हुआ जल किसी पेड़ की जड़ में डाल देना चाहिए ध्यान रहे उस जल को इधर-उधर नहीं फेंकना चाहिए।
धर्म ग्रंथों के अनुसार तर्पण का जल सूर्योदय से आधे प्रहर अमृत के समान होता है। एक प्रहर तक शहद के समान डेड प्रहर दूध के समान और साढ़े तीन प्रहर तक जल के रूप में हमारे पितरों को प्राप्त होता है। अतः हमें सूर्योदय से आधे प्रहर के बीच ही तर्पण करना चाहिए।
इस प्रकार हमारे पित्र हमसे उनके प्रति श्रद्धा भक्ति व समय-समय पर उनको याद करते रहे ऐसी अभिलाषा रखते हैं। अतः हम सब का कर्तव्य है कि हम हमारे माता-पिता बड़े बुजुर्गों का सम्मान करें व जो हमारे पूर्वज इस लोक में नहीं रहे उनके प्रति हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उनके निमित्त भी समय-समय पर उनके प्रति श्रद्धा भक्ति बनाएं। जिससे हमारे पित्रों की हम पर कृपा बनी रहे।
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आचार्य श्री कौशल कुमार शास्त्री
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