किष्कंधा से समुद्र तक हनुमत चरितम

                           -: जय श्री राम  -:




 जैसा कि हम जानते हैं कि हनुमान जी किष्कंधा में रहते थे
और भी सुग्रीव के हितेषी मित्र परम सहायक भी थे उस समय महाराज रिक्स राज स्वर्ग सिधार चुके थे बड़े पुत्र वाली इस समय किष्कंधा के राजा थे और छोटे पुत्र सुग्रीव युवराज थे इस प्रकार समय व्यतीत होता रहा एक दिन दुंदुभी नामक असुर का जेष्ठ पुत्र बाली से लड़ने आया बाली और सुग्रीव को देख कर भाग गया और एक गुफा में घुस गया बाली सुग्रीव को बाहर प्रतीक्षा करने के लिए कह कर गुफा के अंदर चला गया बहुत समय पश्चात सुग्रीव ने गुफा में कोलाहल सुना और रक्त की धारा गुफा से बाहर आती देखी बाली तो मारा गया ऐसा समझकर वह गुफा का द्वार शिला से बंद करके किष्किंधा पूरी आ गया मंत्रियों ने उसे राजा बना दिया कुछ समय बीतने पर बाली लौट  आया सुग्रीव को राज सिंहासन पर बैठा देखकर वह बहुत  कुद्हुआ और उसने अपने छोटे भाई सुग्रीव को मारपीट कर राज्य से बाहर निकाल दिया और उसकी पत्नी रूपा को भी छीन लिया इस पराजय और अपमान से सुग्रीव रात दिन चिंता में रहने लगा इस संकट काल में हनुमान जी ने उनका साथ नहीं छोड़ा सुग्रीव अपने चुने हुए हितेषी एवं वीर हनुमान के साथ वन वन भटकने लगे सुग्रीव को हर समय बालिका भय बना रहता था हनुमान जी ने अजयवीर होते हुए भी बाली को मारकर सुग्रीव का दुख निवारण क्यों नहीं किया इसका कारण यही था कि हनुमान जी शाप के कारण अपना सारा प्रक्रम भूले हुए थे वे सुगृीव के परम हितेषी थे और अब तो वे सुग्रीव के मंत्री थे वे उसकी भलाई में निरंतर गतिशील थे एक समय धेन्धूभि असुर बाली से युद्ध करने किष्किंधा पुरी आया बाली ने उसको मार कर एक योजन दूर फेंक दिया उस दैत्य के मुख से गिरता हुआ रक्त मतंग ऋषि के आश्रम में गिरा और उसकी मृत देह से  है से कई  पेड टूट गए तब मतंग ऋषि ने उस पर्वत आकार मृत दैत्य को देखकर शाप दिया कि जिस दुर्बुद्धि नीच ने मेरे आश्रम को अपवित्र किया है यदि वह मेरे आश्रम के चार कोस के घेरे में आएगा तो अवश्य मारा जाएगा बाली ने सुग्रीव से ऐसी शत्रुता कर ली थी कि सुग्रीव बाली के भय से व्याकुल आगे आगे और बाली उसे मारने के लिए पीछे पीछे तीनों लोकों में घूमते  फिरे परंतु ऐसा स्थान कोई नहीं मिला जहां सुग्रीव को बाली के भय से मुक्ति मिलती अंत में सुग्रीव हनुमान जी और अपने अन्य साथियों के साथ पंपा नामक सरोवर के किनारे स्थित मुनि मतंग के आश्रम पर आ गया और उसे सरूर के निकट ऋषि मुख पर्वत पर रहने लगे वहां रहकर सुग्रीव को कुछ शांति मिली क्योंकि मुनि मतंग के  भय से बाली वहां जाता ही नही अपितु बाली उस और देखता भी नहीं था इसी ऋषिमुक पर्वत पर मंत्रियों सहित सुग्रीव रह रहा था एक दिन की बात है कि उसने अस्त्र-शस्त्र धारी दो वीरों को पंपापुर के निकट घूमते हुए देखा लगता था कुछ खोज रहे है सुग्रीव संकीत हो उठा आकर अपने सभासदों से बोला मुझे मारने के लिए बाली ने दो सूर वीरो को भेजा है ऐसा लगता है देखो वह कुछ ढूंढ रहे हैं उससे पहले की भी हमारा पता लगा सके हमें उनका भेद जान लेना चाहिए इस तरह डरे हुए सुग्रीव ने हनुमान जी से बोले जिस पापात्मा भाई से तुम डरते हो वह यहां मुझे कहीं नहीं दिखाई देता तुम यह बात भूल रहे हो कि बाली शाप के कारण उसके लिए यह स्थान अगम्य है यहा वह तुम्हारा अनिष्ट नहीं कर सकता है तब सुग्रीव हनुमान जी से बोला यह दोनों पुरुष बल और रुप के निदान हैं इन्हें देखकर मेरा मन शांत हो रहा है तुम भेष बदलकर उनके पास जाओ तुम इनसे बात करते समय मुंह मेरी और रखना यदि यह बाली के भेजे हुए हो तो तुम संकेत कर देना तुम्हारा संकेत पाकर अपने प्राण रक्षा के लिए तुरंत पर्वत छोड़कर भाग जाऊंगा और यदि यह हमारी सहायता पाने के इच्छुक हो तो उन्हें आदर सहित यहां ले आना


हनुमान जी और श्री राम की भेट -:


हनुमान जी ब्राह्मण का वेश धारण करके उस स्थान पर पहुंचे जहां श्री राम और लक्ष्मण सीता माता को वन में ढूंढ रहे थे वहां जाकर उन्होंने मस्तक नवाकर मधुर भाव से कहने लगे आप  देवताओं के समान तपस्वी और कठोर व्रत धारी लग रहे हो आप लोग पंपा सर के तटवर्ती वृक्षों को चारों ओर से देखते हुए इस शुभ जल वाली नदी की शोभा बढ़ा रहे हैं हे धीर पुरुषों ! सुवर्ण की कांति के समान चीर पहने हुऐ बड़ी बाहूवाले लंबी लंबी सांसे लेते हुए आप कौन हैं जो इस वन चारी प्रजा जनों को पीड़ा देते हैं आप हाव भाव से सिंह के समान हैं आप महान बलवान और महा पराक्रमी है इंद्रधनुष की तरह आप दोनों के धनुष देखकर जान पड़ता है कि आप शत्रुओं का नाश करने वाले हैं आप दोनों ही वृषभ के समान पराक्रमी हैं हाथी की सूंड के समान आकर की भुजाएं हैं आप तेजस्वी और नर श्रेष्ठ भी है आपकी ज्योति से यह पर्वतराज ऋषि मुक जगमगा रहा है आप तो राज प्राप्त करने के योग्य है आप इस प्रदेश में क्यों पधारे हैं जटा ओ को बढ़ाएं हुई आप वीरों की आंखें कमल के पत्तों के समान निर्मल दिखाई देती है आप दोनों की मुखाकृति एक दूसरे से मिलती जुलती है मुझे मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि आप दोनों देव लोक से आए हैं ऐसा लगता है मानो साक्षात चंद्र व सुर्य इच्छा से धरती पर उतर आए हो आप दोनों उन्नत वक्ष स्थल वाले मनुष्य का रूप धारण कीये हुये क्या कोई देवता है आपके कंधे सिंह के समान हैं आप महा उत्साही है और तरुण वृक्षों की तरह सजग है आपकी भुजाऐ विशाल और गदा के समान सुडौल और बलवान है यह भुजाऐ भूषणो से विभूषित होने योग्य है फिर भी क्यों नहीं विभूषित हो रही है मेरी समझ में तो आप दोनों पृथ्वी के रक्षा करने योग्य है आपके दोनों धनुष अद्भुत चिकने और चित्रकारी किए हुऐ हैं इनसे आप सागर वन विंध्याचल मेरु पर्वत से शोभायमान इस समूची पृथ्वी की रक्षा कर सकते हैं आपके धनुष इंद्र के स्वर्ण जड़ित वृज की तरह शेभा दे रहे है


 दोनों के तरकस भी सुंदर जान पड़ते हैं और तीखे बाणों से परिपूर्ण हैं मै  आपसे लगातार इतने प्रश्न कर रहा हूं परंतु आप उत्तर क्यों नहीं दे रहे हैं सुग्रीव नाम से एक  धर्मात्मा वानर राज है वे अपने भ्राता के द्वारा से घर से निकाल दिए गए हैं इस कारण वे दुखी अवस्था में मारे मारे फिर रहे है वानरे के राजा सुगृीव द्वारा भेजा हुआ मैं आप के समीप आया हूं मैं उन प्रमुख बांनरो में से एक हूं हनुमान मेरा नाम है धर्मात्मा सुग्रीव आपके साथ मैत्री करना चाहते हैं मुझे आप पवन का पुत्र और सुग्रीव का मंत्री जाने सुग्रीव के हित साधन के लिए मैंने यह ब्राह्मण वेश बना लिया था मैं रूप बदलने में कुशल हूं और मैं जहां चाहु वहीं जा सकता हूं मैं ऋषि मुक पर्वत से आया हूं इतना कहकर हनुमान जी मैन हो गए 

भगवान श्री राम द्वारा हनुमान जी की प्रशंसा  -:


 हनुमान जी के सुंदर वचन सुनकर भगवान श्री राम अति प्रसन्न हुए और लक्ष्मण से बोले भैया यह वानर राज महात्मा सुग्रीव के मंत्री हैं मैं स्वयं उनसे मिलना चाहता था तो यह उनके मंत्री स्वयं ही मेरे पास आ गए हैं हे लक्ष्मण सुग्रीव के इन बुद्धिमान मंत्री एवं शत्रुओं का नाश करने वाले कपि श्रेष्ठ से तुम मधुर वाणी में प्रीति पूर्वक बातचीत करो क्योंकि जिस प्रकार की बातचीत उन्होंने हमसे की है वैसी बातें वेदों के ज्ञान के बिना कोई नहीं कर सकता इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने संपूर्ण व्याकरण अनेकों बार सुन रखा है इसलिए तो इन्होंने इतने बड़े वार्तालाप में कहीं भी किसी शब्द का अशुद्ध प्रयोग नहीं किया है इतना ही नहीं अपितु बोलने समय भी इनके मुख नेत्र ललाट तथा अन्य किसी  प्रसंग पर कहीं भी कोई रोष नहीं देख पड़ा इन्होंने अपने कथन को न तो इतना बड़ा किया  और ना इतना संक्षिप्त ही किया कि उसका भाव समझने में भ्रम उत्पन्न हो अपने कथन को व्यक्त करते समय इन्होंने न तो शीघ्रता की ओर नहीं बिलम ही किया इनके शब्द मन को चुभने वाले नहीं है इनके हृदय का वाक्य कंठ में आकर बाहर निकलता है तो उसका स्वर  ऊचा होता है और न नीचा होता है अपितु मध्यम होता है इनकी वाणी व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध संपन्न है वह न धीमी है ना तेज है यह जो बातें करते हैं वह मधुर और मनोहर लगती है इसलिए ही निष्पाप लक्ष्मण जिस राजा का ऐसा दूत ना हो उसके कार्यों की सिद्धियां कैसे हो सकती है और जिस राजा के पास ऐसे गुणों से युक्त कार्य सिद्ध करने वाले दूत हो उसके सब कार्य दूत की बातचीत द्वारा ही सिद्ध हो जाते हैं श्रीराम के इस प्रकार कहने के पश्चात लक्ष्मण हनुमान जी से बोले ही विद्वान हमको सुग्रीव के गुण विदित है हम दोनों उन्हीं कपिराज सुग्रीव को ढूंढते फिरते हैं

इस प्रकार हनुमान जी ने मन में विचार किया कि इनको सुग्रीव से अवश्य ही अपनी कार्य सिद्धि की आवश्यकता है इसीलिए तो यह सुग्रीव से मिलने के लिए पधारे हैं ऐसा मन में विचार कर के वीर शिरोमणि हनुमान जी महाराज बोले कि आप दोनों इस पंपा सर के वन को सुशोभित कर रहे हो और मैं जाना चाहता हूं प्रभु कि आप किस कारण से यहां पधारे हैं हनुमान जी के ऐसे वचन सुनकर भगवान श्री राम के संकेत पर लक्ष्मण बोले कि हे विप्र देवता हम अयोध्या के महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण हैं और पिता के वचन का पालन करने के लिए वन वन भ्रमण कर रहे हैं और हमारी अनुपस्थिति में माता सीता को कोई काम रूपी राक्षस हर ले गया है हम माता सीता को ही इस प्रकार वन वन ढूंढ रहे हैं जब हम आ रहे थे तो कबंध नामक राक्षस ने हम को खाना चाहा तब उसकी विशाल एक भुजा को भगवान श्रीराम ने और एक भुजा को मैंने उखाड़ दिया जब वह साफ मुक्त हो गया तो हमसे कहने लगा कि ब्रह्मदेव की आज्ञा के अनुसार मैं आपको बताना चाहता हूं कि सीता माता को कोई राक्षस हर ले गया है और आप यहां से विषय मुख पर्वत पर सुग्रीव रहते हैं आप उनसे मित्रता कीजिए  सीता माता की खोज में आपका सहयोग करेंगे इसी कारण से हम महाराज सुग्रीव को ढूंढते हुए यहां तक आए हैं ऐसा दुख का वर्णन करते समय लक्ष्मण जी की आंखों में अश्रु धारा बहने लगी  हनुमान अत्यंत दुखी हुए फिर उन्होंने कहा कि महाराज आप मेरी पीठ पर विराजमान हो मैं अभी आपको महाराज सुग्रीव के पास ले चलता हूं तब भगवान श्री राम और लक्ष्मण को हनुमान जी अपनी पीठ पर बिठाकर के आकाश मार्ग से ऋषि मुक पर्वत पर ले जाते हैं उधर सुग्रीव श्री राम और लक्ष्मण को अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित देखकर के पहले से ही रिसय मुख पर्वत छोड़कर चला जाता है तब हनुमान जी महाराज अकेले जाकर के सुग्रीव को सारा वृतांत सुनाते हैं और सुग्रीव को ऋषि मुख पर्वत पर ले आते हैं तब हनुमानजी ने सूखी लकड़ियों को रगड़ करके अग्नि प्रकट की और अग्नी को भगवान श्री राम और सुग्रीव के बीच में रख दिया अग्नि प्रज्वलित होने लगी ता भगवान श्री राम और सुग्रीव ने उसकी परिक्रमा करके उसे साक्षी मानकर के मित्रता की भगवान श्रीराम ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बाली का वध किया और सुग्रीव का राज्याभिषेक किया गया तथा बाली पुत्र अंगद को युवराज बनाया गया वर्षा ऋतु का समय आ गया था इसलिए देवी सीता को ढूंढना मुश्किल था इसलिए भगवान श्री राम और लक्ष्मण ऋषि मुख पर्वत पर रहने लगे उधर सुगीव को बहुत दिनों बाद अनेकों कष्ट सहन करने के बाद राज्य प्राप्त हुआ था इसलिए वह भोग विलास में इतना डूब गया कि राजकार्य मंत्रियों को सौंपकर के स्वयं अनंतपुर में भोग विलास में डूबा रहने लगा

 हनुमान जी की जागरूकता -:


  सुग्रीव को काम के वश देखकर और वर्षा काल का अंत निकट जानकर हनुमान जी ने सुग्रीव को प्रतिकूल वचनों से उसके हित की बात कही  बोले राम ने पहले ही तुम्हारा कार्य सिद्ध कर दिया है और तुमको राज्य दिला दिया है अब श्रीराम के कार्य में विलंब नहीं होना चाहिए हनुमान जी की बातों को सुनकर सुनकर सुग्रीव सचेत हुआ और उसने नल और नील नामक अपने वानर सैनिकों को चारों दिशाओं में वानरों को इकट्ठा करने का आदेश दिया फिर वह सर्वथा काम के वशीभूत होकर सुग्रीव पुनः अंतापुर में चला गया उधर वर्षा ऋतु का अंत जानकर ऋषि मुक पर्वत पर श्री राम को चिंता होने लगी क्योंकि सुग्रीव की ओर से सीता जी के विषय में कोई सूचना नहीं मिली थी सो उन्होंने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास भेजा सीता जी की खोज में सुग्रीव की एकदम शिथिलता देखकर लक्ष्मण क्रोधित होकर श्रीराम से बोले कि सुग्रीव को किष्किंधा पूरी में जाकर जान से मार देंगे परंतु श्रीराम ने उन्हें शांत किया और कहा कि मित्र का वध करना उचित नहीं है सुग्रीव से कठोर वचन मत कहना केवल इतना ही कहना कि नियत किया हुआ समय बीत गया है जब क्रोध से भरे लक्ष्मण किस कंधा पूरी में पहुंचे तो सभी धीर वीर वानरों  सहीत  सुग्रीव अत्यंत भयभीत हुआ तब उनका भय दूर करते हुए हनुमान जी ने कहा कि वह श्रीराम से डरे नहीं परंतु इस बात को भी ना भूले कि सारा दोष उसी का है वर्षा ऋतु बीत गई अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसे सीता की खोज का कार्य कर देना चाहिए था क्योंकि इस कार्य का श्रीराम ने पहले ही कर दिया था लेकिन सुग्रीव काम के वश में होकर सीता जी की खोज के कार्य में शिथिलता दिखा रहा है इसलिए श्री राम ने लक्ष्मण को भेजा है अब तो दोषी होने के नाते लक्ष्मण के कठोर वचन सुननी हीं पड़ेंगे भलाई इसी में है कि व लक्ष्मण के पास जाकर और शीश नवाकर उन्हें प्रणाम करें उनकी आज्ञा का उल्लंघन करने की कल्पना मात्र भी ना करें सुग्रीव की नम्रता देखकर यह जानकर कि उनके चारों दिशा में वानर सेना को बुलाया है लक्ष्मण शांत हुए सुग्रीव ने हनुमान जी से सब ओर से वानर सेना बुलाने के लिए एक संदेश फिर भेजा तब सुग्रीव और लक्ष्मण पालकी में बैठकर श्री राम के पास आए सुग्रीव ने अपना मस्तक श्री राम के चरणों में रख दिया तब श्री राम ने सुग्रीव के अपराधों को भुलाकर उसे अपने वक्ष स्थल से लगा लिया इसी बीच चारों दिशाओं में से असंख्य वानर पहुंचे राम ने कहा कि पहले तो यह पता लगाना है कि सीता जी जीवित है या नहीं तब उपरांत रावण के निवास स्थान का पता लगाना है यदि सीता जी जीवित हुई तो रावण के निवास स्थान पर जाकर जो उचित होगा वह कार्य तुम्हारी सलाह से किया जाएगा

 सीता की खोज के लिए वानरों का प्रस्थान -:

 सुग्रीव ने श्री राम के सामने ही पूर्व में विनत नामक युथपति पश्चिम में तारा के पिता और बाली के ससुर हुसैन नामक युथपति उत्तर में सलवती युथपति को ससेना भेजा दक्षिण दिखा  में उसने युवराज अंगद के नेतृत्व में हनुमानजी  नील  जाम,न्नत आदि कार्य साधन में पूर्ण वानर को भेजा  सुग्रीव ने अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में हनुमान जी से कहा कि हे वानर श्रेष्ठ में जानता हूं कि तुम भूमि में अंतरिक्ष में स्वर्ग में जल में सर्वत्र जा सकते हो और तुम्हारा वेग तुम्हारे पिता पवन के समान है तुम्हारे समान तेजस्वी  दूसरा कोई नहीं है इसलिए ऐसा उपाय करना जिससे माता सीता का पता लग जाए श्रीराम ने भी प्रसन्न होकर हनुमान को अपने नाम से अंकित अंगूठी निसानि रूप में प्रदान की और कहा कि कपि श्रेष्ठ जिनके द्वारा जानकी जी यह जान जाएगी कि तुम मेरे पास से ही आए हो और तुम पर विश्वास कर लेगी हनुमान जी ने अगुठी अपने माथे पर लगाएं और श्री राम के चरणों की बन्दना करके चल दिए वन पर्वत गुफा आदि में सीता जी को ढूंढते ढूंढते हनुमान जी और अन्य वानर थक कर चूर चूर और भूख प्यास से व्याकुल हो गए परंतु सीता जी का कहीं पर भी पता नहीं लगा पाए और सुग्रीव द्वारा दी हुई एक मास की अवधि भी समाप्त हो गई तब वे पराक्रमी वानर विंध्य पर्वत का कोना कोना ढूंढते हुए एक विचित्र बिल के पास पहुंचे इसे रिछ का बिल कहा जाता था उस बिल में घूमने की हिमत पराक्रमी वानर भी ना कर सके तब हनुमानजी बोले देखो इस बिल से हंस सारस चकवा आदि पक्षी जलचर निकल रहे हैं इसी के मुहाने पर हरे भरे वृक्ष के लगे हुए हैं हो न हो इस बिल के अंदर कोई जलाशय अवश्य है

 गुफा में वानरों का प्रवेश -:

 तब एक दूसरे का हाथ पकड़कर प्यास से व्याकुल वानर निस्तेज होकर उस अंधकार मय गुफा प्रवेश कर गऐ एक योजन चलने के बाद उन्हें प्रकाश दिखाई दिया लेकिन थकावट और प्यास से अति दुर्बल होकर देर तक भूमि पर मूर्छित से पड़े रहे इसके बाद उन्होंने वहां प्रकाश सूक्त सुंदरवन देखा उस बिल में फल-फूल आदि खाद्य पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तब उन्होंने काले मृग की छाल ओढ़े एक तपस्विनी स्त्री को देखा और सभी विश्मय में से दूर खड़े हो गए परंतु हनुमान जी ने उससे पूछा तुम कौन हो और यह वन किसका है वह तपस्विनी बोली यह मयदानव का वन है वह हेमा नामक अप्सरा पर आसक्त हुआ था इसलिए इंद्र ने उसे प्रहार द्वारा मार डाला तब यह वन ब्रह्मा जी ने हेमा को दे दिया मैं मेरु साबरनी की पुत्री स्वयंप्रभा इस वन की रखवाली करती हूं हनुमान जी ने सीता हरण की बात उस तपस्विनी को बतला कर यह भी बताया कि सुग्रीव द्वारा दी गई एक मास की अवधि बीत चुकी है और उस से प्रार्थना है कि वह कृपा करके उन वानरों को बिल के बाहर निकाल दें तपस्नी के कहने पर सभी वारों ने अपनी आंखें बंद कर दी और उस तपस्वी ने  अपने तप के प्रभाव से सबको बिल के बाहर निकाल दिया और उनके लिए मंगल कामना करती हुई फिर बिल में घुस गई

 वानरों की व्याकुलता -:

 उन सब वानरो  के नेता युवराज अंगद ने कहा कि सीता जी का पता नहीं लगा और एक माह की अवधि बीत गई सो यदि हम लौटकर किष्किंधा जाते हैं तो सुग्रीव श्री राम को प्रसन्न करने के लिए हमें अवश्य मरवा डालेंगे तो कहिए अब क्या करें सब ने अंगद की बात से सहमति प्रकट की तब अंगद बोला कि चलो हम सब इस बिल में लौट चलें और सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करें सब सहमत हो गये  इस विद्रोह और श्रीराम के कार्य से विमुक्त  देखकर हनुमान जी बोले हे अंगद ! वानर स्वभाव से ही चंचल होते हैं इसलिए कालांतर में यह तुमको छोड़कर अपनी स्त्री और पुत्र आदि को के पास चले जाएंगे वैसे भी निर्बल को बलवान से वैर नहीं करना चाहिए तुम इस बिल में भी सुरक्षित नहीं रह सकते लक्ष्मण के तीखे बाण इस बिल को पत्तों के दाने की तरह नष्ट कर देंगे इसलिए तुम अवश्य किष्किंधा चलो तब अंगद ने कहा अब मैं किसी प्रकार की जिंदा नहीं जा सकता क्योंकि मेरा इस बिल में रहने का विचार पक्का हो चुका है इसलिए मैं अन्न  जल का सेवन बंद करके यही प्राण त्याग दूंगा आप सभी अपने अपने घरों को लौट जाए यह सुनकर सभी वह न रोने लगे और अंगद के साथ अंजल छोड़कर मरने तैयार हो गये


 संपाती से भेंट -:

 उसी पर्वत पर जहां बांदर मरण व्रत लिए बैठे थे संपाती नाम का वृद्ध गीधराज रहता था वह जटायु का बड़ा भाई था वानरों के मरण व्रत की बात सुनकर वह बोला विधाता ने आज बहुत सा भोजन मेरे लिए भेज दिया है इन वानरो में से जो जो मरता जाएगा उसे मेै अपनी भूख मिटाता जाऊंगा उसकी यह वाणी सुनकर बांदर डर गए वे आपस में कहने लगे हम से तो जटा ही अच्छा था जो श्रीराम के काज से मारा उसने परम गति पाए हम श्रीराम का कार्य पूरा भी ना कर पाए थे कि नई विपत्ति आन पड़ी है जटायु संपाती का छोटा भाई था उसका मरण सुनकर संपाती शौक से भर उठा उसने जटायु कि मृत्यु का कारण पूछा युवराज अंगद ने सारा वृत्तांत सुना दिया फिर उससे पूछा गिधराज क्या आपको कुछ ज्ञान है कि सीता को कौन हर कर ले गया संपत्ति ने बताया मुनि विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है रावण वध दक्षिण में यहां से सौ योजन समुद्र पार लंका पुरी में रहता है वहीं अशोक नामक वन में सीता जी केद है सीता जी के बारे में जानकर वानरों को चैन मिला परंतु जब समुद्र तट पर पहुंचे तो फिर चिंता में डूब गऐ कौन समुद्र के पार जाए अंगद ने सभी वाहनों को समुद्र पार करने की अपनी अपनी क्षमता का जिक्र करने के लिए कहा ताकि पता लग सके कि कौन सो योजन समुद्र लांग कर वापस लौट सकता है कोई वानर 10 योजन कोई 20 कोई 30 40 50 योजन जा सकता था वृद्ध जामवंत ने 90 योजन जा सकता था अंगद ने कहा कि मैं सौ योजन जा तो सकता हूं पर फिर लौट सकूं या नहीं इसमें संदेह ऐसी स्थिति में समुद्र पार कौन जाए यह प्रश्न था हनुमान जी एकांत में सुख पूर्वक बैठे थे जामवंत ने वानर सेना को दुखी देखकर उनसे पूछा हे वीर वानर अनुमान आप मैन क्यों बैठे हैं आप तेज और बल में वनराज सुग्रीव के समान ही नहीं बल्कि राम और लक्ष्मण के समान हैं जितना बल महाबली  भगवान गरुड़ के दोनों पंखों में हैं उतना ही बल आप की भुजाओं में हैं आप में बल बुद्धि तेज और उत्साह सब प्राणियों से अधिक है फिर आप अपने आप को पहचानते क्यों नहीं तब जामवंत ने हनुमान जी को उनके जन्म और उनके वरदानो तथा शाप आदी को विस्तार से कह सुनाई फिर बोले हे महावीर आप केसरी वानर  और पवन के औरस पुत्र हैं इसके अतिरिक्त आप तेज में भी अपने पिता पवन के समान हैं इसमें केवल आप ही है जो सब  के प्राणों की रक्षा कर सकते हैं अतःहे हनुमान !प्राणी मात्र का उपकार कीजिए जैसे भगवान विष्णु ने वामन अवतार के समय तीन पग पृथ्वीनापने  को अपना शरीर बढ़ाया था उसी प्रकार आप भी अपना पराक्रम प्रदर्शित कीजिए 

हनुमान जी में शक्ति का संचारण -:

 जब इस प्रकार जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी शक्ति का स्मरण कराया तो हनुमान जी ने भगवान श्रीराम का जय घोष का उच्चारण करते हुए अपने छोटे से शरीर को उसी  प्रकार बढ़ाया जिस प्रकार राजा बलि के पास वामन अवतार ने अपने छोटे से शरीर को बढ़ा लिया था फिर हनुमान जी ने जयेष्ट श्रेष्ठ वांरो को प्रणाम किया और कहा वे आकाशचारी अग्नि के मित्र पर्वतों के हिला देने वाले गरुड़ के समान  पवन देव का औरस पुत्र हूं मेरे समान वेग वाला दूसरा कोई नहीं मैं अपने भुजबल से समुद्र को हिलाकर पहाड़ नदी और तालाबों सहित इस लोक को डूबा सकता हूं मै सारे समुद्र को भी खेल-खेल में लांग सकता हूं मैं रावण को उसके सहायको सहित मारकर त्रिकूट पर्वत को यहां ला सकता हूं हे जामवंत जी बताइए मुझे क्या करना है इस पर जामन्त जी ने कहा वीरवर हनुमान आपको सीता जी को खोज कर उनका वृतांत लाना है शेष कार्य श्री राम स्वयं करेंगे समुद्र को लाने के लिए हनुमान जी महेंद्र पर्वत पर खेल में ही कूदकर चढ गये उनके पर्वताकार शरीर से वह अत्यंत दृढ़ और विशाल  महिंद्राचल भी कांप उठा उस पर फूले हुए वृक्षों के फूल ही नहीं गिर गई अपितु शीलाये भी नीचे लुढ़क ने लगी गंधर्व नाग विद्याधर पशु-पक्षी सभी उस कंपाइन पर्वत को छोड़कर अपने प्राण रक्षा के लिए इधर उधर जाने लगी हनुमान जी सूर्य महेंद्र पवन ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं प्रणाम करके आकाश में कूदे जल में उनकी छाया तीस योजन लंबी और दस योजन चोड़ी दिखने लगी वे आकाश मार्ग में ऐसे शोभायमान हो रहे थे जिसका वर्णन करना कठिन है उनके इस अदित्य कार्य को देखकर देव दानवों ने फूलों की वर्षा की





 जय श्री राम

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