हनुमान जी द्वारा माता सीता का पता लगाना






 जय श्री राम


  • सागर को श्री राम के पूर्वज सगर के पुत्रों ने पूर्व काल में खोद कर बढ़ाया था इसलिए जब सागर ने श्री राम दूत हनुमान जी को सागर लांग ते देखा तो उसने सोचा कि इन्हें विश्राम देकर मुझे अपनाएं कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए क्योंकि कुछ काल तक विश्राम करके सागर के शेष भाग को लाना इनके लिए आसान हो जाएगा यह सोचकर सागर ने समुद्र जल में छिपे हुए मैनाक पर्वत को प्रेरणा दी कि वह हनुमान जी को विश्राम दे मैनाक पर्वत भी श्रीराम के कार्य में सहायक होना चाहता था सो उसने तुरंत जल के ऊपर अपने शिखर निकाल लिए परंतु हनुमान जी सोचा कि यह मेरी मार्ग में बाधा उपस्थित हो गई इसलिए उन्होंने उनक को अपनी छाती के प्रहार से गिरा दिया तब मैनाक ने मनुष्य रूप धारण कर हनुमान जी से विश्राम करने को कहा तब हनुमानजी ने अपने हाथ से मैनाक पर्वत का स्पर्श करके आतिथ्य स्वीकार किया परंतु श्रीराम का कार्य पूरा किए बिना विश्राम न करने की अपनी प्रतिज्ञा मैनाक को बताई समस्त देवता सिद्ध और ब्रहम ऋषि हनुमान जी के इस दुष्कर्म को देखकर उनकी अति प्रशंसा करने लगे हनुमान जी का बल और बुद्धि जांचने के लिए उन्होंने नागों की माता को हनुमान जी की परीक्षा के लिए भेजा

नागों की माता सुरसा द्वारा हनुमान जी के बल बुद्धि की परीक्षा लेना  -:

सुरसा हनुमान जी के मार्ग में आकर बोली देवताओं ने तुझको मेरा भोजन बताया है मैं तुझे खाऊंगी मेरे मुख में प्रविष्ट हो यह कहकर सुरसा ने अपना विकराल मुंह फैलाया सुरसा के यह वचन सुनकर हनुमानजी क्षण मात्र भी चिंतित नहीं हुए उन्होंने प्रसन्न होकर हाथ जोड़कर यो कहा मै श्रीराम के कार्य से लंकापुरी जा रहा हूं वहां से सीता जी का पता लगाकर प्रभु श्री राम को सुना दूं तब मैं आकर आपके मुंह में घुसा आऊंगा हे माते में यह जो कुछ कह रहा हूं वह पूर्ण सत्य है इसलिए अभी आप मुझे जाने दे परंतु सुरसा बोली कि नहीं मैं तुम पर विश्वास नहीं कर सकती हूं इसलिए मैं तुम्हें अभी ही अपने मुंह में निगलना चाहती हूं जब इस प्रकार सुरसा नहीं मानी तो हनुमान जी ने कहा फिर मुझे अभी खा लो सुरसा ने एक योजन भर अपना मुंह फैलाया तब हनुमानजी ने अपने शरीर को उससे दुगना बड़ा लिया इस प्रकार जब सुरसा ने 16 आयोजन अपने मुख का विस्तार किया तो हनुमानजी उससे दुगने अर्थात 32 योजन के हो गए जैसे जैसे नागों की माता सुसान्ने अपने मुख का विस्तार किया हनुमान जी उसके दुगना रूप बनाते चले गए उसने सो योजन का मुख जब किया तब हनुमानजी ने बहुत छोटा रूप धारण कर लिया और भी उसके मुंह में घुसकर तुरंत बाहर आ गए फिर उसको शीश नवाकर विदा मांगने लगे वह बोली हे पवन पुत्र हनुमान मैंने तुम्हारी बल और बुद्धि का भेद पा लिया है इसलिए देवताओं ने मुझे भेजा था मैं तुम्हें आशीष देती हूं कि तुम श्रीराम का कार्य पूर्ण कर पाओगे क्योंकि तुम्हारी बुद्धि और बल असिमीत है तुम बल और बुद्धि के भंडार हो मैं तुम्हें आशीर्वाद देखती हूं कि तुम प्रभु श्री राम का कार्य सफलतापूर्वक करो इस प्रकार पवन पुत्र हनुमान बिना किसी रुकावट के आगे बढ़ते चले जा रहे थे

 सिंहिका नाम की राक्षसी का पवन पुत्र हनुमान द्वारा वध -:

जब भगवान हनुमान सुरसा से विदा होकर के आकाश मार्ग से जा रहे थे तो समुद्र में सिंगहीका नाम की एक राक्षसी रहती थी उसने अपनी माया के बल से आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ने की कला आती थी आकाश में जो जीव जंतु उठकर जाते  आते थे उनकी परछाई को वह जल में देखकर परछाई को पकड़ लेती थी जिससे वे उड नहीं सकते थे और जल में गिर पड़ते थे इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवो को खाया करती थी उसने वही छल पवन पुत्र हनुमान जी के साथ भी किया हनुमान जी उसका छल जान गए इसलिए उन्होंने उस दुष्टा राक्षसी को इतने जोर से दबाया कि उसके प्राण पखेरू उड़ गए तब उन्होंने उसे समुद्र में ही डाल दिया उस राक्षसी को समुद्र में मरवा देकर आकाश चारी जीव बोले हे वीर हनुवाना आज तूने बहुत बली जीव को मारा है अब अपने इष्ट काम को करे.  इस प्रकार देवताओं से पूजित होकर हनुमानजी गरुड़ के समान वेग से आगे बढ़े और समुद्र को पार हो गए तो सामने एक विशाल पर्वत था हनुमानजी निर्भय होकर उस पर्वत पर चढ़ गए और वहां से उन्होंने लंकापुरी को देखा लंकापुरी सोने की चारदीवारी के अंदर एक बहुत बड़ा किला था सोने की उस दीवार में स्थान स्थान पर मनिया जडी हुई थी चारदीवारी के अंदर सुंदर घर चौराहे बाजार सुंदर मार्ग और गलियां थी हाथी घोड़े पैदल रथो  के समूह को कौन गिन सकता था राक्षस अनेक रूपों में रहते थे और उनकी सेना भी बहुत ही बली थी मनुष्य नाग ओर देवता की सुंदर रूपवती बालाएं वा मौजूद थी बड़े बड़े योद्धा अखाड़े में कुश्ती लड़ रहे थे भयंकर देह वाले अनेकों योद्धा यतन करके नगर की चारों दिशाओं में रखवाली कर रही रहे थे ऐसा कड़ा पहरा जब हनुमान जी ने देखा हनुमान जी ने मन में विचार किया कि इतने कड़े पहरे को पार करके लंका में किस प्रकार से पहुंचे तो उन्होंने संध्या के समय लघु रूप बनाना उचित समझा

 लघु रूप बनाकर हनुमान जी का लंका में प्रवेश -:

 सांयकाल हनुमान जी ने अति लघु रूप बना करके लंका के द्वार पर पहुंचे वहां नगर की अधिष्ठात्री देवी लंकिनी पहरा दिया करती थी जब उन्होंने हनुमान को देखा तो वह बोली मेरा निरादर करके कहां जा रहे हो मूर्ख वानर जितने भी चोर हैं वे मेरे आहार बन जाते हैं यह कहकर वह हनुमान जी पर झपटी हनुमान जी ने एक मुक्का मारा जिससे वह पृथ्वी पर लुढ़क गई और उसके मुंह से रक्त की धारा बहने लगी तो उसने उठकर के हनुमानजी से क्षमा मांगते हुए रास्ता दे दिया हनुमान जी ने लंका पूरी छान मारी पर उन्हें सीता जी कहीं नही मिली ढूंढते ढूंढते वे एक महल के पास पहुंचे उस महल पर श्री राम के धनुष बाण बने हुए थे और तुलसी के पौधे लगे हुए थे हनुमानजी सोचने लगे कि इस राक्षस नगरी में सज्जनों का निवास कैसे हो सकता है वह लंकापति रावण के छोटे भाई विभीषण का  महल विभीषण राम भक्त था तब हनुमानजी ने सजन का घर समझकर विभीषण से मिले तो विभीषन हनुमान जी से मिलकर अति प्रसन्न हुआ उसने हनुमान जी को सीता जी के निवास का पता ठिकाना बता दिया और हनुमान जी अपना सूक्ष्म रूप बनाकर अशोक वाटिका में जा पहुंचे

माता सीता के दर्शन व माता से भेट -:


हनुमान जी महाराज जी विभीषण जी से विदा होकर के अशोक वाटिका में आते हैं और उस अशोक वृक्ष की डाली पर बैठकर के माता सीता को देखकर हनुमान जी ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया सीता जी को शोक सागर में डूबी हुई देखकर हनुमान जी बहुत दुखी हुए हनुमान जी ने अशोक वृक्ष के पत्तों में छिपकर बैठे थे जिस वृक्ष के नीचे मैया सीता बैठी थी वे अभी सोच रहे थे कि क्या करें कि इतने में रावण सज धज कर अनेक नारियों से घिरा हुआ वहां आया उस दुष्ट ने सीता जी को बहुत प्रकार से समझाया तब सीताजी ने एक तिनके की ओर से रावण को खूब खरी-खोटी सुनाई उन्होंने उसे डरपोक और निर्लज्ज बताया क्योंकि वह उन्हें अकेली पाकर हर लाया था अपमानित होकर रावण सीता जी को तलवार से मारने को तैयार हुआ पर उसकी पटरानी मंदोदरी ने उसे रोका तब वह सीता जी को यह कहकर कि यदि एक मास के अंदर मेरा कहा नहीं माना तो मैं तुझे तलवार से मार डालूंगा रावण अपने महल को लौट गया सीता जी की रक्षा करने वाली राक्षसीयो में एक प्रमुख थी इसका नाम था त्रिजटा उसने अपना सपना  सुनाया सोने की लंका जल रही है रावण यमलोक जा रहा है विभीसन को राज्य मिल रहा है और सीता जी को श्री राम ने बुलाया है इस सपने को सुनकर सभी वहा से डर कर भाग गई तब सीताजी त्रिजटा से बोलीं हे माता तुम आग ला दो मै चिता में जल कर मर जाना चाहती हूं त्रिजटा यह कह कर चली गई कि रात के समय मे आग कहां से मिलेगी परंतु सीता जी शोक में डूबी हुई अकेली बैठी रही इसी बीच हनुमान जी ने श्री राम की अंगूठी सीता जी के सामने गिरा दी सीता जी ने प्रसन्न होकर उसे उठा लिया  इसके बाद हनुमान जी वृक्ष से नीचे उतर आए उन्होंने अपना परिचय देते हुए श्री राम लक्ष्मण का वृत्तांत कह सुनाया उन्होंने कहा कि वह श्री राम लक्ष्मण और सुग्रीव की ओर से आए हैं इस पर सीता जी के मन में शंका उठी कि कहीं रावण की माया का छल तो नहीं हनुमान ने श्री राम जी की अंगूठी दी तो सीता का संदेह मिट गया कि हनुमान जी को श्री रामचंद्र जी ने भेजा है हनुमान जी ने सीता जी को ढांढस बंधाया सीता जी का दुख कुछ कम हुआ हनुमान जी ने कहा माता रावण के बुरे दिन आए हैं जो उसने आपका हरण किया है मेरे जाते ही श्री राम लंका पर चढ़ाई कर देंगे पर आप का कष्ट देखते यह मेरा अनुरोध है कि आप मेरे साथ इसी समय चलिए मैं आपको कंधों पर बिठा लूंगा और वायु गति से सागर पार पहुंचा दूंगा मेरे लिए कोई कार्य असाध्य नहीं है आज्ञा हो तो मैं सारी लंका को ही उठाकर ले चलूं या कहिए तो सभी राक्षसों का संहार कर दूं इस पर सीता माता ने कहा हे वानर श्रेष्ठ हनुमान तुम्हारा शरीर तो छोटा सा है तुम्हारी बातें उस से मेल नहीं खाती यह सुनकर हनुमानजी ने अपनी देह का पर्वत के आकार के समान बना लिया और बोले माता में चाहूं तो रावण और उसकी लंका को उठाकर यहां से ले चलो मुझे आज्ञा कीजिए सीता जी बोली पवन पुत्र हनुमान में तुम्हारी शक्ति व पराक्रम को जानती हूं  तुम सब कुछ करने में समर्थ हो तुम्हारे साथ जाना उचित नहीं होगा तुम्हारी तीर्गति के कारण मै मूर्छित हो सकती हू मार्ग में राक्षसों से युद्ध का संकट हो सकता है रावण को मारकर राम मेरा उद्धार करें तो उन्हें यश मिलेगा तुम मेरे पुत्र के समान हो किंतु पर पुरुष का स्पर्श मै नहीं कर सकती हनुमान जी ने सीता जी को आदर की दृष्टि से देखा सीता जी ने उन्हें बहुत-बहुत आशीर्वाद दिए इसके बाद हनुमान जी ने सीता जी की आज्ञा लेकर वृक्षों के फलों से अपनी भूख मिटाने का निश्चय किया अपनी इच्छा  पूरी पूरी करते हुए उन्होंने अनेक वृक्षों को नष्ट कर दिया मालियों को खदेड़ उन्हें मौत के घाट उतार दिया जो भी रोकने आया उसी को मार डाला चारों और आतंक छा गया बहुत से लोग तो मारे गए पर जो बच गए रावण के दरबार में पहुंचे रावण ने कहीं योद्धा हो तथा सेनानियों को भेजा पर हनुमान जी ने सब को मार गिराया इस पर रावण ने अपने पुत्र अक्षय कुमार को भेजा जो कि तुरंत ही काल का ग्रास बन गया मेघनाथ ने आकर बृम पास का प्रयोग किया ब्रह्मा से हनुमानजी मुक्त थे पर रावण की राजसभा में जाकर वहां पर उसका अनादर करने की इच्छा से वे स्वयं उस में बंध गए

हनुमान जी का ब्रहम पास में बन्दना और रावण की राजसभा में रावण को फटकार ना -:


 मेघनाथ उन्हें बांधकर राज्यसभा में ले गया वहां रावण की राज्यसभा की शोभा और वैभव निराला था रत्न जड़ित सिंहासन पर रावण सुशोभित हो रहा था दीवारें और छत भाति भाति के रतनो हीरो से जगमगा रहे थे बड़े बड़े देवता हाथ जोड़े सेवा में खड़े थे सेम अग्नि देवता मानो आज्ञा की प्रतीक्षा में हो सूर्य वहां पर उपस्थित थे और वायु देव पंखा डोला रहे थे सभी सभासदों पर आतंक छाया हुआ था हनुमान जी को बंदी रूप में देखकर रावण जोर से ठहाका मारकर हंसा और साथ ही उसे अपने पुत्र और अन्य योद्धाओं की दुर्दशा स्मरण हो आई क्रोध में आंखें लाल करके पूछा दुष्ट कौन है तू यह उत्पाद तूने क्यों और किस के बल पर मचाया है तूने रावण के क्रोध को ललकारा है उसका फल भुगतने को तैयार हो जाओ रावण कि क्रोधित वाणी का हनुमान जी पर कोई प्रभाव न पड़ा मंद मुस्कान से उन्होंने उत्तर दिया है लंकेश तूने मुझसे पूछा है कि किस के बल उत्पात मचाया है तो मैंने कोई उत्पात नहीं मचाया है मैं वानर हूं भूख लगी तो फल तोड़कर खा लिए दोष तुम्हारे उन मूर्ख दासो का है जो मेरी प्रकृति न जान सके उन्होंने ही मुझे छेड़ा तो अपनी करनी का फल पाया मेरा तो इसमें कोई दोष नहीं था तूने मेरा परिचय पूछा है तो सुन मेरा नाम हनुमान है और भगवान श्री राम का दूत हूं जिनकी पत्नी को तू छल से कायरों की तरह चुरा कर लाया है मैं उन्हीं श्री रामचंद्र जी का दूत हूं जिन्होंने तुझे कांख में दबाकर रखने वाले बाली का एक ही बाण में मार डाला ऊनि श्री रामचंद्र का दूत हूं राजा जनक के दरबार में जिस धनुष को तू हिला तक नहीं सका उसको तीनक् की तरह तोड़ देने वाले वही राम मेरे स्वामी है खर दूषण और त्रिजटा का 14000 सैनिकों के साथ संघार करने वाले वीर को तो तू अच्छी तरह पहचानता है उन्हीं राम का में दुत हू हनुमान जी की ऐसी  वाणी सुनकर रावण का मुख तमक गया राक्षसों मे ॉॉभय का संचार हो आया आज तक जहां पर उसकी यशोगाथा सुनने को मिली थी वहां भरी सभा में उसे ऐसी ललकार मिली  यह प्रथम अवसर था वह अपमानित होकर थरथर कांपने लगा इस पर हनुमान जी बोले सुनो रावण में तुम्हारी हित की बात करता हूं तुम विद्वान हो उच्च कुल से हो विपुल ऐश्वर्या की स्वामी हो तुम ने भगवान राम से वेयर करके अच्छा नहीं किया अभी भी समय है तुम सीता जी को उन्हें आदर सहित लौटा दो और सच्चे मन से उनसे क्षमा मांगो श्री राम बड़े दयालु हैं शरणागत होने पर तुम्हें वह अवश्य क्षमा कर देंगे तुम सीता जी को आदर सहित लौटा दो अगर तुमने ऐसा ना किया तो संसार की कोई भी शक्ति तुम्हें सर्वनाश  से बचा नहीं सकेगी तुम अपनी प्रजा के के लिए पिता के समान हो तुम उनके विनाश का कारण ना बनो रावण को हितकर बातें भी बुरी लगी  वह क्रोध से बोला इस दुष्ट का वध कर दो इस पर  विभीषण ने उठकर निवेदन किया दुत चाहे कितना ही अप्रिय क्यों ना बोले उसका वध सर्वथा अनुचित है उसकी दुष्टता का दंड केवल अंग भंग तक सीमित है अतः इस वानर को कोई और दंड दिया जाए इस पर रावण ने हनुमान जी की पूंछ जला डालने की आज्ञा दी सेवकों ने हनुमान जी की पूंछ में कपड़ा लपेटकर तेल डाल कर पूछ में आग लगा दी और फिर हनुमान जी को पूरे नगर में घुमाया


 हनुमान जी द्वारा लंका दहन -:


 हनुमान जी भी निर्विकार होकर यह सब सहन करते रहे जब राक्षसों ने उन्हें मुख्य द्वार पर छोड़ दिया तो वे उछलकर अट्टालिका  के ऊपर चढ गए और अपना आकार बढ़ाना शुरू किया फिर वहीं बैठे बैठे उन्होंने अपनी जलती पूछ से आसपास के भवनों को जलाना प्रारंभ कर दिया देखते ही देखते आग की लपटें चारों ओर फैलने लगी व शीघ्र ही उन्होंने सारी नगर को अपनी लपेट में ले लिया धू धू करके सारा नगर स्वाहा हो गया बच्ची केवल विभीषण की झोपड़ी नगर को नष्ट भ्रष्ट कर चुकने के बाद हनुमान जी ने समुद्र में जाकर पूछ की आग बुझाई और स्नान आदि करके सीता जी की सेवा में आए लंका दहन का सारा वृत्तांत सुनाकर उन्होंने वापिस जाने की आज्ञा मांगी  उधर समुद्र तट पर अंगद आदि वीर उत्सुकता से हनुमानजी की प्रतीक्षा कर रही थे एकाएक हनुमान जी आकाश मार्ग से घोर गर्जना करते हुए उनके मध्य में पहुंचे तथा सीता जी का समाचार कह सुनाया इस पर उनके हर्ष की कोई सीमा न रही हर्ष मनाता आनंद से किलकारियां भरता वनों में कंदमूल फल खाता तथा वृक्षों को उखाड़ हुआ यह दल रामचंद्र जी की सेवा में आ पहुंचा बड़ी ही नम्र वाणी में हनुमान जी ने अपनी यात्रा की कहानी और सीता जी की करुण गाथा का भगवान श्रीराम से वर्णन किया यह समाचार जानकर रामचंद्र बोले हनुमान तुमने मुझ पर जो उपकार किया है उससे मैं तुम्हारा सदा सदा के लिए ऋणी हूं तुम ही कुछ मांगू जिससे मेरे मन का बोझ हल्का हो हनुमान जी तुरंत बोले प्रभु तुम वानर की धृष्टता क्षमा करें मैं आपसे जगत की सबसे दुर्लभ वस्तु मागता हूं आप मुझे यही  वरदान दे कि आप की अनन्य भक्ति मुझ में बनी रहे इस पर भगवान श्री राम ने हनुमान जी को अपने गले से लगा लिया और अपनी अनन्य भक्ति का वरदान प्रदान किया

जय जय श्री राम

पवन पुत्र हनुमान जी महाराज की जय

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