श्री कृष्ण सुदामा की मित्रता

जय श्री कृष्णा जय श्री कृष्णा जय श्री कृष्णा जय श्री कृष्णा जय श्री कृष्णा जय श्री राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे
कृष्ण सुदामा मित्रता
(३५)

पत्नी सुशीला के द्वारा बार बार कहने पर सुदामा जी का द्वारिका के लिए प्रस्थान -:


भगवान श्री कृष्ण के एक बाल सखा थे जिनका नाम था सुदामा, सुदामा और श्रीकृष्ण ने गुरु सांदीपनि आश्रम में एक साथ शिक्षा प्राप्त की थी शिक्षा प्राप्त करके  भगवान श्री कृष्ण राज कार्य करते हुए  द्वारिका में रहने लगे उधर सुदामा भी अपने नगर में रहने लगे और समय पाकर सुदामा का विवाह सुशीला नामक ब्राह्मण कन्या के साथ हुआ सुदामा जी परम ज्ञानी व संतोषी ब्राह्मण थे और निरंतर ईश्वर नाम स्मरण किया करते थे  उनकी पत्नी सुशीला भी पति भक्त व धर्म परायण स्त्री थी इस प्रकार सुदामा जी परम ज्ञानी व भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे लेकिन सांसारिक दृष्टि से सुदामा बहुत गरीब  थे क्योंकि सुदामा जी के पास ना तो अपने बच्चों व स्त्री का तन ढकने के लिए पर्याप्त मात्रा में वस्त्र थे नाही भरपूर भोजन प्राप्त होता था नगर से भिक्षा में जो प्राप्त होता उसी को भगवान का प्रसाद मानकर के सुदामा अपने परिवार के साथ उसे पा करके अपनी पेट की भूख मिटाते थे एक दिन की बात है जब सुदामा स्नानादि क्रिया से निवृत्त होकर के भगवान श्री कृष्ण की उपासना कर रहे थे उन्होंने अपनी पत्नी सुशीला से कहा कि  प्रभु के लिए भोग लेकर के आओ सुशीला कहने लगी प्रभु !आज तो हमारे घर में एक अन्न
 का दाना भी नहीं है जिससे हम हमारे प्रभु को भोग लगा सके ऐसा कहती हुई सुशीला भोजन बनाने का जो पात्र था उसे सुदामा जी को दे देती है सुदामा ने जब उस पात्र को देखा तो वह पात्र पूरी तरह से खाली था अंत में सुदामा जी को  एक चावल का दाना दिखाई पड़ा सुदामा ने उस एक चावल के दाने को निकालकर  भगवान श्रीकृष्ण को अर्पण कर दिया और कहने लगे  प्रभु मुझे क्षमा करना आज मेरे घर में आप को भोग लगाने के लिए मात्र एक चावल का दाना बचा है प्रभु आप इस एक चावल के दाने से ही भूख मिटाना क्योंकिअभागा सुदामा आज आपको भरपूर भोजन भी नहीं करा सका ऐसा कहते हुए सुदामा जी ने अपने भगवान श्री कृष्ण को एक चावल के दाने का भोग लगाया उधर सुदामा जी के बच्चे भूख से बिलख रहे थे भूख के मारे उनके बच्चों का स्वास्थ्य गिरता ही जा रहा था फिर भी सुदामा किसी भी प्रकार से विचलित नहीं थे व उसे भगवान की कृपा मानकर ही संतुष्ट थे एक दिन सुदामा जी की पत्नी सुशीला उनसे कहने लगी कि हे प्रियतम आज हमारा परिवार निर्धनता के कारण बहुत ही दुख पा रहा है हमारे बच्चों को भरपूर भोजन किए बहुत दिन हो गए इसलिए मेरी एक बात मानिए आप बार-बार मुझसे कहा करते हो कि द्वारिका के राजा श्री कृष्ण तुम्हारे मित्र हैं तो आप एक बार क्यों नहीं मेरे कहने से उससे मिलने के लिए चले जाओ स्वामी आप मेरा कहा मानिए और अपने भक्तवत्सल द्वारिकाधीश श्री कृष्ण से मिलने के लिए जाहिए निश्चित वे हमारी गरीबी को दूर करेंगे और फिर आप निरंतर उन्ही का तो नाम सुमरन किया करते हैं अत:स्वामी अब तुम्हें बिना विलंब किए द्वारिका की ओर प्रस्थान करना चाहिए जब बार-बार सुशीला ने सुदामा जी को द्वारिकाधीश के पास जाने को कहा सुदामा कहने लगी कि सुशीला तुम सत्य कहती हो कि द्वारिकाधीश प्रभु बडेभक्तवत्सल व ब्राह्मण भक्त  है पर क्या तुम जानती हो कि जब द्वारिका के लोग मुझ निर्धन ब्राह्मण को देखेंगे और जानेंगे कि वह श्री कृष्ण के मित्र हैं तो क्या इससे द्वारिका वासियों के सामने द्वारिकाधीश श्री कृष्ण को लज्जितनहीं होना पड़ेगा किस प्रकार जब सुदामा ने अपने मन के भाव अपनी पत्नी सुशीला से कहा तब सुशीला कहने लगी कि प्रियतम ऐसा विचार व्यर्थ है क्योंकि वे द्वारिकाधीश तीनों लोको के राजा हैं और और वे अच्छी तरह से जानते हैं कि किस प्रकार ब्राह्मणों की सेवा की जाती है इस प्रकार सुदामा बार-बार अपनी पत्नी के द्वारा कहे जाने पर भगवान श्री कृष्ण से मिलने के लिए तैयार हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि हे सुशीला शास्त्र कहता है कि जब कोई अपने मित्र के पास जाए तो भेंट स्वरूप कुछ ले जाना चाहिए लेकिन हम तो इतने अभागे हैं कि हमारे पास भेंट स्वरूप ले जाने के लिए एक दाना भी नहीं है जब सुदामा ने ऐसा कहा तो उनकी पत्नी सुशीला नगर के कुछ घरों से भिक्षा में चावल लेकर के आती है और उन चावलों को एक फटे से वस्त्र में बांधकर के सुदामा जी को दे देती है और सुदामा उन चावलों की छोटी सी पोटली को लेकर द्वारिका की और भगवान श्री कृष्ण से मिलने के लिए प्रस्थान करते हैं
सुदामा निरंतर एक लाठी के सहारे श्री कृष्ण का नाम स्मरण करते हुए जा रहे हैं इस प्रकार धीरे-धीरे सुदामा पैदल मार्ग से द्वारिका के निकट पहुंचते हैं जब सुदामा जी ने द्वारिका को नगर के बाहर से देखा तो अचंभित रह गए ऐसे मनोरम द्वारिका के बाहरी दृश्य को देख कर के सुदामा जी के मन में अनेक प्रकार के प्रश्न उठने लगे सोचने लगे कि क्या मुझे द्वारिकाधीश श्री कृष्ण से मिलना चाहिए या नहीं ऐसा विचार करते-करते द्वारिका पुरी के अंदर चले जाते हैं और द्वारिका वासियों से पूछने लगे भाइयों क्या यही द्वारिकापुरी है तब द्वारिका वासियों ने कहा कि हे ब्राह्मण यही द्वारिकापुरी है कहो तुम्हें किस से मिलना है तब सुदामा कहने लगे भाइयों मुझे द्वारिका के जो राजा है श्री कृष्ण उनसे मिलना है वह मेरे बाल सखा है सुदामा के मुंह से ऐसी बात सुनकर के द्वारिका वासी जोर जोर से हंसने लगे और सुदामा को श्री कृष्ण के महल का मार्ग बताते हैं सुदामा जी धीरे धीरे संकुचित भाव से द्वारिकाधीश भगवान श्री कृष्ण के महल के दरवाजे तक पहुंचते हैं और जैसे ही दरवाजे के अंदर जाने लगे द्वारपालों ने सुदामा को रोक लिया और कहने लगे हे वृद्ध ब्राह्मण तुम बिना आज्ञा के अंदर किस प्रकार जा रहे हो क्या तुम्हें पता नहीं है कि द्वारिकाधीश से बिना उनकी आज्ञा से के कोई भी नहीं मिल सकता!
जब द्वारपालों ने सुदामा जी को द्वार पर ही रोक लिया तो सुदामा कहने लगे कि भाइयों जाकर के तुम तुम्हारे स्वामी द्वारिकाधीश से कहो कि मैं सुदामा उनका बालसखा उनसे मिलने आया हूं तब सुदामा की दीन दशा को देखकर के द्वारपाल बार-बार सोचने लगे कि क्या द्वारिकाधीश का ऐसा निर्धन गरीब ब्राह्मण भी कोई मित्र बालसखा हो सकता है लेकिन जब सुदामा ने हाथ जोड़कर के द्वारपालों से कहा कि भाइयों तुम जाकर कि एक बार तुम्हारे स्वामी द्वारिकाधीश से जाकर के कहो कि उनका बाल सखा सुदामा उनसे मिलने के लिए आया है जब बार-बार सुदामा ने इस प्रकार द्वारपालों से हाथ जोड़कर विनती की तब द्वारपाल बोला हे वृद्ध ब्राह्मण ! तुम यहीं ठहरो में अभी जाकर के तुम्हारा संदेश द्वारकाधीश को सुनाता हूं

श्री कृष्ण सुदामा मिलन  -:


उधर भगवान श्री कृष्ण द्वारकाधीश अपने सिंहासन पर बैठे हुए हैं और उनकी पट रानियां सत्यभामा रुकमणी जी भगवान द्वारकाधीश की सेवा में खड़ी है उसी समय द्वारपाल आकर कहता है द्वारकाधीश की जय हो भगवान श्री कृष्ण बोले कहो द्वारपाल क्या संदेश लेकर के आए हो द्वारपाल कहने लगा भगवन कोई गरीब ब्राह्मण आपसे मिलने के लिए आया है भगवान बोले हे द्वारपाल! कौन है वह गरीब ब्राह्मण कहां से आया है और उसका नाम क्या है? तब द्वारपाल बुला भगवन ! उसके तन पर फटी सी धोती और गले में फटा सा अंगोंछा  है उसका शरीर बड़ा ही कृश व दुर्बल है और जान पड़ता है कि वह बहुत ही गरीब है तथा उसकी दशा बड़ी दयनीय है और मुझे यह तो ज्ञात नहीं कि वह कहां से आया है पर कहता है कि आप उसके बाल सखा है और वह ब्राह्मण अपना नाम सुदामा बता रहा है

महाकवि श्री नरोत्तम दास के शब्दों में,-:

------------------------------------------------

"शीश पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा!

धोती फटी सी लटी दुपटीअरू, पाय उपानह  की नहीं सामा !!

द्वार खड़्यो द्विज एक रह्यो,चकिसौं वसुधा अभिरामा !

पूछत दीनदयाल को धाम,  बतावत अपनो  सुदामा !!


जैसे भगवान श्री कृष्ण ने द्वारपाल के मुंह से सुदामा का नाम सुना तो भगवान श्रीकृष्ण झटके से अपने सिंहासन से खड़े हो जाते हैं और भाव विभोर होकर  कहने लगे कहो द्वारपाल ! तुम क्या कह रहे हो मेरा बाल सखा सुदामा मुझसे मिलने के लिए आया है ऐसा कहकर कि भगवान श्री कृष्ण सुदामा सुदामा कहते हुए नंगे पैर दौड़ने लगे और जब भगवान श्री कृष्ण दौड़ रहे थे तो उनको अपने शरीर की सुध बुध भी नहीं थी उनके अंग वस्त्र मार्ग में गिरते जा रहे हैं लेकिन भगवान श्री कृष्ण अपनी आंखों में आंसूओं की धारा लिए हुए अपने बाल सखा सुदामा से मिलने के लिए दौड़ रहे हैं ऐसा दृश्य देखकर के सभी नगरवासी बड़े आश्चर्यचकित होने लगे
जब भगवान श्री कृष्ण ने देखा कि द्वार के बाहर उनका बाल सखा सुदामा दीन दशा में उनसे मिलने के लिए खड़ा है सुदामा को दूर से देख कर के ही भगवान श्री कृष्ण कहने लगे सुदामा मेरा मित्र सुदामा आया है ऐसा कहते हुए सुदामा को अपने हृदय से लगा लेते हैं और अपनी बाहों में भर कर कहीं लगे  देखो द्वारपालो आज मेरा मित्र सुदामा आया है

 फिर भगवान श्री कृष्ण सुदामा का हाथ पकड़ कर के रथ में बिठाकर  अपने राजभवन की ओर ले जाते हैं जैसे ही रथ राज भवन के निकट पहुंचा भगवान श्री कृष्ण सुदामा को हाथ पकड़कर रथ से नीचे उतारते हैं और हाथ पकड़कर अपने राज सिंहासन पर ले जाकर के बिठाते हैं और अपनी पटरानीयो से कहने लगे देखो सत्यभामा, रुकमणी! आज मेरा बाल सखा सुदामा आया है मेरे मित्र सुदामा के पसीने आ रहे हैं  इनके पंखे से हवा कीजिए और फिर भगवान श्री कृष्ण सुदामा जी के चरणों में बैठकर के कहने लगे मित्र सुदामा तुमने यह क्या दशा बना रखी है ऐसा कह कर के भगवान श्री कृष्ण जब सुदामा जी के चरण टटोलने लगी तो देखा सुदामा के चरणों में असंख्य  कांटे चुभे हुए हैं तब भगवान श्री कृष्ण सुदामा के चरणों से कांटे निकालने लगे  तो रक्त बहने लगा सुदामा की ऐसी दीन हीन दशा को देखकर के कृष्ण रोने लगे अश्रु धारा बहाने लगे और बोले सुदामा तुमने यह क्या दशा बना रखी है मित्र ! आज से पहले तुम मुझसे मिलने क्यों नहीं आये। इस प्रकार श्री कृष्ण कृष्ण ने चरण धोने के लिए जो जल का पात्र मंगाया था उसको हाथ से छुआ तक भी नहीं और अपनी अश्रु धारा से सुदामा जी के चरण पखारने लगे


यथा-महाकवि नरोत्तमदास

--------+--+----------++--++----

"ऐसे बेहाल बेवाइन  सों पग,कंटक जाल लगे पुनि जोये! हाय!महा दु:ख पायो सखा तुम,  आये इतै न कितै दिन खो!



  देखि सुदामा की दीन दशा, करुणा करके करुणानिधि रोए !

पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए!!

  इसे देख  आकाश मंडल में समस्त देवी-देवता आनंदित होने लगे और भगवान श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे
 उधर रुक्मणी सत्यभामा वृंदा इत्यादि उनकी पटरानीया भगवान श्री कृष्ण के व्यवहार को देखकर चकित होकर विचार ने लगी यह कैसी इनकी मित्रता है हमारे स्वामी इतना प्रेम तो हम रानियों से भी नहीं करते हैं जितना प्रेम आज इस गरीब ब्राह्मण सुदामा पर लुटा रहे हैं
फिर भगवान श्री कृष्ण सुदामा से कहने लगे मित्र कहो अपने जीवन के क्या हाल है और मेरी भाभी कैसी है  उनका क्या नाम है तब सुदामा कहने लगे मित्र तुम्हारी भाभी का नाम सुशीला है और वहभी निरंतर तुम्हें याद करती है और मैं सच कहूं तो उसके बार-बार कहने से ही तुमसे मिलने आया हूं क्योंकि मैं निर्धनता के संकोच वश तुमसे मिलने आने में आनाकानी कर रहा था लेकिन तेरी भाभी ने मुझे सौगंध दे करके तुमसे मिलने के लिए भेजा है तब भगवान श्रीकृष्ण कहीं लगे प्रिय मित्र सुदामा तब तो मेरी भाभी ने मेरे लिए खाने के लिए उपहार स्वरूप निश्चित रूप से कुछ न कुछ तो भेजा है तब सुदामा संकौच वश झूठ बोलते हैं कहते हैं मित्र तुम्हारी भाभी ने कुछ भी नहीं भेजा है

यथा-महाकवि नरोत्तमदास-:

------------------------------------

"कछु भाभी हमको दियो , सो तुम काहे न देत !

 चांपि पोटरी कांख में , रहे कहौ केहि हेतु !!




तब श्रीकृष्ण कहने लगे तो मित्र तुम्हारी इस पोटली में तुम क्या छुपा रहे हो सु कहने लगे नहीं मित्र देखो कुछ भी तो नहीं है कुछ भी तो नहीं है तब भगवान श्रीकृष्ण ने झटके से सुदामा जी के हाथ से सुशीला द्वारा भेजे हुए चावलों की पोटली को खींच लेते हैं और खोल कर देखते हैं कि उसमें अलग-अलग प्रकार के चावल है चावलों को देखकर  भगवान श्रीकृष्ण भाव विभोर होकर कहने लगे रे सुदामा तुम तो झूठे निकले तुम तो कह रहे थे कि मेरी भाभी ने मेरे लिए कुछ भी नहीं भेजा देखो तो सही आज मेरी भाभी ने मेरे लिए कितना सर्वोत्तम स्वादिष्ट उपहार स्वरूपव्यंजन भेजा है ऐसा कह कर भगवान श्रीकृष्ण अपने हाथ से एक मुट्ठी  चावल अपने मुंह में खा जाते हैं और कहने लगे वाह सुदामा वाह देखो आज कितना स्वादिष्ट भोजन मेरी भाभी ने मेरे लिए भेजा है इसके स्वादिष्ट का वर्णन मैअपने शब्दों के द्वारा नहीं कर सकता ऐसा कह कर भगवान श्रीकृष्ण दो मुट्ठी चावल खा जाते हैं जब श्रीकृष्ण तीसरी मुट्ठी चावल भर कर अपने मुंह में डालने लगे लक्ष्मी स्वरूपा रुकमणी जी भगवान का हाथ पकड़ लेती है और कहने लगी भगवान आप यह क्या कर रहे हो आपने दो मूठ्ठी चावल के बदले सुदामा को दो लोक का राज्य प्रदान कर दिया और तीसरी मुट्ठी खा कर  क्या मुझ लक्ष्मी को भी सुदामा जी को देना चाहते हो

इस प्रकार सुदामा और भगवान श्री कृष्ण अपने अतीत की मधुरम यादों को ताजा करते हैं और सुदामा भी कुछ दिन द्वारिका में भगवान श्री कृष्ण के साथ रहकर के अपने नगर को जाने के लिए तैयार होते हैं सुदामा कहने लगे मित्र  मुझे जाना चाहिए क्योंकि तुम्हारी भाभी सुशीला मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी तब भगवान श्रीकृष्ण करने लगे मित्र !तुम ठीक कहते हो क्योंकि भाभी निश्चय ही तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हौगी !

सुदामा जी का अपने नगर के लिए प्रस्थान -:

 इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण में प्रत्यक्ष रूप से सुदामा को विदा में कुछ भी नहीं दिया और हाथ जोड़कर गले मिलकर  भगवान श्री कृष्ण सुदामा को विदा देने के लिए अपने भवन के द्वार तक आते हैं जब सुदामा अपने नगर के लिए प्रस्थान करने लगा तो सुदामा मन में विचार करने लगा की उसने तो मुझे विदा में कुछ भी नहीं दिया नहीं-नहीं निश्चित रूप से मुझे कृष्ण विदा में कुछ स्वर्ण मुद्राएं देंगे तभी तो कृष्ण नेअपने हाथों की दोनों मुढ्ढिया बंद कर रखी हैं और संभवत इन मूठ्ठीयो में ही स्वर्ण मुद्राएं है जो मुझे देने के लिए लाए हैं भगवान श्री कृष्ण सुदामा के मनोभाव को पहचान जाते हैं तब अपने दाहिने हाथ की मुट्ठी खोलकर अंगुली का इशारा करते हुए कहेंगे देखो मित्र सुदामा तुम इस मार्ग सीधे चले जाना तब सुदामा ने देखा अरे कन्हैया की दाहिनी मुट्ठी में मैं तो स्वर्ण मुद्राएं समझ रहा था लेकिन यह तो खाली है फिर मन ही मन विचार करने लगे नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता इनके बाएं हाथ की मुट्ठी में निश्चित रूप से मुझे देने के लिए स्वर्ण मुद्राएं होगी तब भगवान श्री कृष्ण सुदामा की मनोभाव को पुनः समझ कर के अपने बाएं हाथ की मुट्ठी खोलकर इशारा करके कहते देखो मित्र सुदामा अब तुम शीघ्र अपने नगर की ओर प्रस्थान करो क्योंकि भाभी सुशीला तुम्हारी प्रतीक्षा करके चिंतित हो रही होगी जब सुदामा ने देखा कि कन्हैया की बाएं हाथ की मुट्ठी भी खाली है सुदामा विचार करने लगा की  क्या कृष्ण को मेरी जाति का भी कोई ख्याल नहीं आया कि जब कोई ब्राह्मण मित्र या कोई ब्राह्मण अपने द्वार आए तो उनको विदा में कुछ दक्षिणा दी जाती है खैर कोई बात नहीं कन्हैया ने मुझे कितना मान सम्मान दिया है क्या यह कम बात है ऐसा विचार करके  भगवान श्री कृष्ण से विदा होकर अपने नगर की ओर प्रस्थान करते हैं



सुदामा को ऐश्र्वर्य प्राप्ति -:


इस प्रकार सुदामा भगवान श्रीकृष्ण से विदा होकर अपने नगर की ओर प्रस्थान करते हैं तब भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा जी को ऐश्र्वर्य प्रदान करने के लिए विश्वकर्मा जी का आह्वान किया विश्वकर्मा भगवान श्री कृष्ण के समक्ष प्रकट होकर कहने लगे भगवान क्या आदेश है तब भगवान श्रीकृष्ण बोले विश्वकर्मा आप जाओ और मेरे परम मित्र सुदामा के लिए उसके नगर में दूसरी द्वारिका नगरी का निर्माण करो जो सुख सुविधा इस द्वारिका नगरी में है वे सारी की सारी सुख सुविधाएं मेरे परम मित्र सुदामा की नगरी सुदामा नगरी में होना चाहिए अतः एक दिव्य सुदामा नगरी का निर्माण करो विश्वकर्मा जी भगवान श्री कृष्ण का आदेश मानकर  सुदामा नगरी  पहुंचते हैं और वहां जाकर एक सुंदरदिव्य सुदामा नगरी का निर्माण करते हैं मानो दूसरी द्वारिका नगरी हो इस दिव्य नगरी का निर्माण विश्वकर्मा जी अपनी योग माया से करते हैं
जब सुदामा धीरे-धीरे अपने नगर को पहुंचते हैं तो देखते हैं कि वहां नगर के स्थान पर एक सुंदर दिव्य नगर बना हुआ है जिसके ऐश्र्वर्य का वर्णन शब्दों के द्वारा नहीं किया जा सकता सुदामा कहने लगे अरे क्या मुझे दिशा का भ्रम हो गया जो मैं पुनःचल करके वापिस द्वारिका नगरी को ही लौट आया
सुदामा जी बहुत ही निराश होते हैं तबी नगर वासियों ने देखा कि सुदामा जी भगवान श्री कृष्ण से मिलकर के लौट आए हैं सारी दिव्य लीला सुदामा जी के कारण ही सुदामापुरी के वासियों को प्राप्त हुई है सारे नगरवासी मंगल थाल सजाकर आगे-आगे सुशीला सोलह सिंगार करके सुंदर दिव्य मंगल थाल सजाकर के नगर के बाहर सुदामा जी की आरती उतारने के लिए आ रही है और सारे नगरवासी सुदामा जी की जय जयकार कर रहे हैंसब सुदामा ने देखा कि उनकी पत्नी सुशीला सोलह श्रंगार किए हुए हैं उनके बालक दिव्य वस्त्र आभूषण पहने हुए हैंऐसा वैभव देख कर  सुदामा समझ जाते हैं कि यह सब मेरे प्रभु द्वारिकाधीश की लीला है अरे मैंने द्वारिकाधीश  परम मित्र श्री कृष्ण के बारे में क्या सोचा था कि उन्होंने मुझे विदा में कुछ भी नहीं दिया इधर द्वारिकाधीश ने मेरे लिए ही नहीं अपितु मेरे सभी नगर वासियों के लिए अपने समान दूसरी द्वारिकापुरी का निर्माण करके उनके समान ही नगरवासियों सहित मुझे दिव्य ऐश्वर्य प्रदान कर दिया ऐसा विचार करके सुदामा जी भाव विभोर होकर के श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे
 सारे नगरवासी सुदामा जी की जय जयकार के साथ-साथ भगवान श्री कृष्ण की जय-जयकार करने लगे






जय जय श्री कृष्ण चंद्र द्वारिकाधीश भगवान की जय






आचार्य श्री कोशल कुमार शास्त्री
     भागवत प्रवक्ता
9414657245



Post a Comment

0 Comments