श्री रुक्मणी मंगल
जय श्री राधे राधे
(१९)
आज की भागवत चर्चा में पूर्व चर्चा को गति प्रदान करते हुए बलराम व श्री कृष्ण विवाह की चर्चा करते हैं। जिसमें श्री बलदेव जी का विवाह रेवत नाम के राजा की कन्या रेवती
के साथ संपन्न हुआ। भगवान श्री कृष्ण भीष्मक नंदिनी रुकमणी के साथ गंधर्व विवाह करते हैं।। तो आइए आज की इस दिव्य रुक्मणी मंगल की कथा का रसपान करते हैं।।
श्री बलदेव जी का विवाह -:
शुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहते हैं। कि हे राजन! भगवान श्री कृष्ण जरासंध कालयवन इत्यादि दैत्यों का संहार करके द्वारिका नगरी बसा कर अपनी प्रजा का धर्म नीति से शासन संचालन में महाराज उग्रसेन की सहायता करते हुए लीला कर रहे थे। उसी समय उग्रसेन जी महाराज ने देवकी और वसुदेव की सहमति से श्रेष्ठ विद्वान ब्राह्मण को बलराम जी के योग्य विवाह के लिए सुयोग्य कन्या खोजने के लिए भेजा गया। ब्राह्मण देवता ने रेवत नाम के राजा की कन्या रेवती को भगवान श्री हलदर के योग्य जान उनका विवाह तय किया। इस प्रकार जब ब्राह्मण देवता भगवान श्री बलदेव जी महाराज का विवाह रेवत नंदिनी के साथ तय कर आए। तब महाराज रेवत ने शुभ लग्न व मुहूर्त में टीका करवायाऔर शुभ लग्न में रेवती व भगवान बलदेव जी का पाणिग्रहण संस्कार संपन्न होता है।।
।। रुक्मणी मंगल कथा।।
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रुक्मणी का श्री कृष्ण से प्रेम करना -:
शुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहने लगे, हे राजन! इस प्रकार जब भगवान श्री बलराम जी का विवाह रेवत नंदिनी रेवती के साथ संपन्न हुआ। और भगवान श्री कृष्ण ने रुक्मणी से प्रेम किया। श्री कृष्ण ने रुक्मणी को शिशुपाल आदि सैकड़ों राजाओं के बीच से हरण कर वैदिक रीति से विवाह रचाया।।तब राजा परीक्षित ने हाथ जोड़कर के निवेदन किया। भगवन! आप कृपा करके मुझे कृष्ण रुक्मणी विवाह की कथा को विस्तार से वर्णन कीजिए।तब शुकदेवमुनि कहने लगे हे
राजन! मैं तुम्हें रुक्मणी मंगल की कथा सुनाता हूं। देखो राजन! विदर्भ देश के कुंडिनपुर में भीष्मक महाराज का राज्य था। भीष्मक के पांच पुत्र व एक कन्या थी। कन्या सबसे छोटी थी जिसका नाम था रुक्मणी। जब रुक्मणी जी का जन्म हुआ तब भीष्मक ने बड़े ही आनंद से संपूर्ण नगर में बधाइयां बंटवाई व आनंदित होकर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा लुटाई क्योंकि हे राजन! रुक्मणी जी का जन्म शुभ सगुनो व लक्षणों से युक्त था। हो भी क्यों न क्योंकि आज भीष्म के घर साक्षात लक्ष्मी जी का अवतार जो हुआ था। रुकमणी के जन्म के बाद ब्राह्मणों ने उसकी जन्म पत्रिका देखकर के राजा भीष्म को बताया कि महाराज आपकी कन्या साधारण कन्या नहीं है। यह साक्षात लक्ष्मी स्वरूपा है।
इस प्रकार हे राजन! जब धीरे धीरे रुकमणी बड़ी होने लगी। जब रुक्मणी अपनी सहेलियों के साथ खेलती थी। जब सखियां संध्या के बाद लुकाछिपी का खेल खेलती थी। तो सखीया रुक्मणी से कहती थी। हे रुकमणी! तुम हमारे साथ यह लुका छुपी का खेल मत खेला करो, क्योंकि जब भी तुम आती हो तो तुम्हारी दिव्य देह से प्रकाश चमकता है। जिससे हम छुप नहीं पाते हैं। ऐसा दिव्य तेज व दिव्य सौंदर्य भीष्मक
नंदनी रुक्मणी जी का था। एक दिन जब देव ऋषि नारद का आगमन कुंडिनपुर में होता है। देव ऋषि को आया हुआ देखकर महाराज भीष्मक नंगे चरण चल कर के द्वार से देव ऋषि नारद का स्वागत सत्कार अभिनंदन करते हैं। और आदर के साथ उचित आसन देकर के बिठाते हैं। तत्पश्चात राजा और रानी अपनी लाडली पुत्री रुक्मणी को बुलाकर देव ऋषि नारद को प्रणाम करवाते हैं। नारद जी ने शुभाशीष दिया। तब नेराजारानी ने कहा, कि आप कृपा करके मेरी पुत्री का भाग्य बताइए?
इसका वर कैसा होगा? इसके भाग्य में क्या लिखा है? तब देव ऋषि नारदन कहने लगे हे राजन! मैं देख रहा हूं। कि रुक्मणी का विवाह किसी साधारण पुरुष से नहीं होगा अपितु जो दिव्य देह धारण करके पृथ्वी पर अवतार दिए हुए हैं। उन्हीं के साथ इसका विवाह होगा। तब महाराज भीष्मक कहने लगे, अब आप कृपा करके यह भी बताइए? कि इस समय ऐसा कौन है। जो मेरी पुत्री के योग्य हैं। तब नारद जी ने कहा कि राजन! द्वारिकाधीश श्री कृष्ण रुक्मणी के विवाह के योग्य है। और इसका विवाह श्रीकृष्ण के साथ संपन्न होगा। जो अभी दुष्टों का संहार करके द्वारिकापुरी में विराजित है। राजन! इस समय श्री कृष्ण श्री नारायण के अवतार रूप में भू मंडल पर लीलाएं कर रहे हैं।
इस प्रकार देव ऋषि नारद ने जब रुकमणी के सामने भगवान श्री कृष्ण के दिव्य सौंदर्य माधुरी व उनकी वीरता का वर्णन किया। तबसे रुकमणी जी भगवान श्री कृष्ण को अपना प्रियतम मान करके प्रेम करने लगी है। आठों प्रहर भगवान श्री कृष्ण की श्याम मूर्ति का ध्यान करती रहती है। जैसा जैसा वर्णन श्री नारद जी ने सुनाया वैसी ही छवि अपने अंतःकरण में बना करके भगवान श्री कृष्ण को अपना प्रियतम मान
रूप में ध्यान करने लगी है। उधर देव ऋषि नारद ने द्वारिकाधीश भगवान श्री कृष्ण से भी भीष्मक नंदनी रुकमणी के रूप सौन्दर्य का वर्णन किया। भगवान श्री कृष्ण भी देवी रुक्मणी से प्रेम करने लगे हैं।।
इस प्रकार हे राजन! जब धीरे धीरे रुकमणी बड़ी होने लगी। जब रुक्मणी अपनी सहेलियों के साथ खेलती थी। जब सखियां संध्या के बाद लुकाछिपी का खेल खेलती थी। तो सखीया रुक्मणी से कहती थी। हे रुकमणी! तुम हमारे साथ यह लुका छुपी का खेल मत खेला करो, क्योंकि जब भी तुम आती हो तो तुम्हारी दिव्य देह से प्रकाश चमकता है। जिससे हम छुप नहीं पाते हैं। ऐसा दिव्य तेज व दिव्य सौंदर्य भीष्मक
नंदनी रुक्मणी जी का था। एक दिन जब देव ऋषि नारद का आगमन कुंडिनपुर में होता है। देव ऋषि को आया हुआ देखकर महाराज भीष्मक नंगे चरण चल कर के द्वार से देव ऋषि नारद का स्वागत सत्कार अभिनंदन करते हैं। और आदर के साथ उचित आसन देकर के बिठाते हैं। तत्पश्चात राजा और रानी अपनी लाडली पुत्री रुक्मणी को बुलाकर देव ऋषि नारद को प्रणाम करवाते हैं। नारद जी ने शुभाशीष दिया। तब नेराजारानी ने कहा, कि आप कृपा करके मेरी पुत्री का भाग्य बताइए?
इसका वर कैसा होगा? इसके भाग्य में क्या लिखा है? तब देव ऋषि नारदन कहने लगे हे राजन! मैं देख रहा हूं। कि रुक्मणी का विवाह किसी साधारण पुरुष से नहीं होगा अपितु जो दिव्य देह धारण करके पृथ्वी पर अवतार दिए हुए हैं। उन्हीं के साथ इसका विवाह होगा। तब महाराज भीष्मक कहने लगे, अब आप कृपा करके यह भी बताइए? कि इस समय ऐसा कौन है। जो मेरी पुत्री के योग्य हैं। तब नारद जी ने कहा कि राजन! द्वारिकाधीश श्री कृष्ण रुक्मणी के विवाह के योग्य है। और इसका विवाह श्रीकृष्ण के साथ संपन्न होगा। जो अभी दुष्टों का संहार करके द्वारिकापुरी में विराजित है। राजन! इस समय श्री कृष्ण श्री नारायण के अवतार रूप में भू मंडल पर लीलाएं कर रहे हैं।
इस प्रकार देव ऋषि नारद ने जब रुकमणी के सामने भगवान श्री कृष्ण के दिव्य सौंदर्य माधुरी व उनकी वीरता का वर्णन किया। तबसे रुकमणी जी भगवान श्री कृष्ण को अपना प्रियतम मान करके प्रेम करने लगी है। आठों प्रहर भगवान श्री कृष्ण की श्याम मूर्ति का ध्यान करती रहती है। जैसा जैसा वर्णन श्री नारद जी ने सुनाया वैसी ही छवि अपने अंतःकरण में बना करके भगवान श्री कृष्ण को अपना प्रियतम मान
रूप में ध्यान करने लगी है। उधर देव ऋषि नारद ने द्वारिकाधीश भगवान श्री कृष्ण से भी भीष्मक नंदनी रुकमणी के रूप सौन्दर्य का वर्णन किया। भगवान श्री कृष्ण भी देवी रुक्मणी से प्रेम करने लगे हैं।।
शिशुपाल के साथ रुक्मणी का लग्न तय होना -:
इस प्रकार हे राजन! सभी कुंडिनपुर वासी रुक्मणी से बहुत अधिक स्नेह करते थे। परिवार में भी सबसे की लाडली थी। एक दिन महाराज भीष्मक अपने परिवारजनों के साथ रुक्मणी के विवाह की चर्चा करने लगे। कि रुक्मणी का विवाह किसके साथ किया जाए। तब रुक्मणी का सबसे छोटा भाई रुक्मरथी ने कहा। कि पिताश्री! मेरी दृष्टि से द्वारिकाधीश श्री कृष्ण से योग्य कोई हमारी रुकमणी के योग्य सुवर नहीं है। अतः हमारी प्यारी बहन का विवाह श्रीकृष्ण के साथ संपन्न होना चाहिए। ।
भीष्मक भी बड़े प्रसन्न हुए ।
रुकमणी पितु कृष्ण को दीजै, वासुदेव सो नाता कीजै। यह सुन भीष्मक हरषे गाय, कही पूत तै नीकी बात।।
दो०
छोटे बढ़नि पूछिकै, कीजै मन परतीति ।
सार वचन गहि लीजिए,यहीं जगत की रीति।।
भीष्मक भी बड़े प्रसन्न हुए ।
उन्होंने कहा कि पुत्र! मेरी भी यही इच्छा है और प्रजा जन भी यही चाहते हैं कि हमारी रुक्मणी का विवाह श्रीकृष्ण के साथ हो। उसी समय रुक्मणी का सबसे बड़ा भाई रुक्मी कहने लगा,।।
पिताश्री! तुमने इस नादान रुक्मरथी की बात का समर्थन कर दिया। यह भी नहीं सोचा कि कहां हमारी प्यारी बहन रुकमणी और कहां वह कृष्ण जो ग्यारह वर्ष तक ब्रज में गाये चराता रहा। माखन की चोरी करता रहा। जिसकी अभी जात का भी पता नहीं कि वह अहीर है या क्षत्रिय है। इसलिए ग्वाल अहीर के छोरे के साथ आप हमारी प्यारी बहन का लग्न करना चाहते हो। मेरे रहते हुए ऐसा कदापि संभव नहीं होगा।
समझन बोलत महागंवार, जानत नहीं कृष्ण व्योहार।
सौरहवर्ष नंदके रह्यो, तब अहीर सब काहू कह्यो।।
कामरिओढी गाय चराई, बनमें बैठि छाक जिन खाई।।
पिताश्री! तुमने इस नादान रुक्मरथी की बात का समर्थन कर दिया। यह भी नहीं सोचा कि कहां हमारी प्यारी बहन रुकमणी और कहां वह कृष्ण जो ग्यारह वर्ष तक ब्रज में गाये चराता रहा। माखन की चोरी करता रहा। जिसकी अभी जात का भी पता नहीं कि वह अहीर है या क्षत्रिय है। इसलिए ग्वाल अहीर के छोरे के साथ आप हमारी प्यारी बहन का लग्न करना चाहते हो। मेरे रहते हुए ऐसा कदापि संभव नहीं होगा।
क्योंकि विवाह बराबर के लोगों में किया जाता है। इसलिए हम हमारी बहन रुक्मणी का विवाह चेदिनरेश दमघोष के पुत्र महापराक्रमी और मेरे परम मित्र शिशुपाल के साथ करेंगे। तब रुक्मी के प्रभाव के आगे महाराज भीष्मक व परिवार के अन्य किसी भी सदस्य का इतना साहस नहीं हो पाया। कि वे उसकी बात का प्रतिकार कर सके। तत्पश्चात शुभ समय व मुहूर्त के अनुसार रुक्मणी का विवाह लग्न चेदि नरेश दम घोष के पुत्र शिशुपाल के साथ निश्चय किया गया। विवाह का शुभ मुहूर्त तय हुआ।।
लेकिन रुक्मणी ने जैसे ही जाना उसका विवाह शिशुपाल के साथ हो रहा है। रुकमणी श्री कृष्ण प्रेम विरह में जलने लगी और घोर निराशा के समुद्र में डूबने लगी।
रुकमणी को ना तो खाना-पीना और नाही उठने बैठने की सुध रही, निरंतर श्री कृष्ण कृष्ण की रट लगाते हुए अपने प्रियतम का ध्यान लगाती रहती है। और कहती हैं। कि हे स्वामी! हे दीनानाथ! हे कृपा निधान! मैं आपकी दासी हूं, मैंने आपसे सच्चा प्रेम किया है।
धीरज कैसे धारू दुख में हमारो नहीं कोई।।
रुकमणी को ना तो खाना-पीना और नाही उठने बैठने की सुध रही, निरंतर श्री कृष्ण कृष्ण की रट लगाते हुए अपने प्रियतम का ध्यान लगाती रहती है। और कहती हैं। कि हे स्वामी! हे दीनानाथ! हे कृपा निधान! मैं आपकी दासी हूं, मैंने आपसे सच्चा प्रेम किया है।
अतः आप कृपा करके मुझे यहां से ले चलिए।।
रुक्मणी का संदेश लेकर ब्राह्मण देवता का द्वारिका जाना -:
इस प्रकार हे राजन! जब रुक्मणी का विवाह लग्न चेदिनरेश दमघोष के पुत्र शिशुपाल के साथ तय कर दिया गया। अतः सारे कुंडनपुर को सजाया जाने लगा । सारे नगर को दुल्हन की तरह सजाया गया है। जगह-जगह पर तोरण द्वारा बनाए गए ।रुक्मणी के विवाह की शहनाइयां बजने लगी है। देश देश के राजा और महाराजा रुक्मणी के विवाह में पधार रहे हैं। सभी राजा महाराजाओं का कुंदनपुर में स्वागत किया जा रहा है। इस प्रकार पूरा कुंडिनपुर रुक्मणी के विवाह की तैयारियों से जगमगा रहा है।
उधर चेदि नरेश शिशुपाल भी विशाल पराक्रमी योद्धाओं की बारात बनाकर हाथी घोड़े रथ लेकर
उधर चेदि नरेश शिशुपाल भी विशाल पराक्रमी योद्धाओं की बारात बनाकर हाथी घोड़े रथ लेकर
रुक्मणी के साथ विवाह लगन के लिए प्रस्थान कर रहा है। जब बारात कुंडिनपुर में प्रवेश कर गई। बारात को समुचित जनवासे में रुकवाया गया।
झारै गली चौहटे छावै, चोवा चंदनासो छिरकावै।
पान सुपारी झोरा कीये, बीच-बीच कनक नारियल दिये।।
हरे पात फल फूल अपार, ऐसी घर-घर बंदनवार।
ध्वज पताका तोरण तने, सुढवकलश कंचन के बने।।।
रुकमणी का विरह बढ़ता गया। रुकमणी की दशा बड़ी ही दयनीय हो गई। रुक्मिणी अपनी सखी से कहने लगी है। हे सखी! अगर मेरे श्याम नहीं आए तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी लेकिन शिशुपाल से विवाह नहीं करुंगी। क्योंकि मैंने मन से भगवान श्री कृष्ण को अपना प्रियतम मान लिया है। पर हे सखी अब क्या करूं तू ही बता? बारात आ चुकी है।
ले बारात आया शिशुपाल, कैसेविर में दीनदयाल।।
लेकिन कैसे मैं अपना संदेश द्वारिकाधीश तक पहुंचा हूं। कि वह आकर मुझे यहां से ले जाए। तब चतुर सखी ने कहा कि मैं अपने विश्वासपात्र ब्राह्मण देवता को बुलाती हूं। आप उसे पाती लिख करके द्वारिका भेज दीजिए। तब रुक्मणी भगवान श्री कृष्ण के नाम पाती लिखती हैं और ब्राह्मण देवता के हाथ में देकर कहने लगी। हे विप्र देवता! मेरे प्राण तुम्हारे हाथों में है।अगर समय से यह पाती मेरे प्रियतम श्री कृष्ण को दे दोगे तो मैं अपने प्राण बचा पाऊंगी अन्यथा मेरे प्राण बचना मुश्किल है। इसलिए ब्राह्मण देवता आप मुझ दासी पर कृपा करके शीघ्राति शीघ्र द्वारिकाधीश के पास जाइए। और यह पाती देकर उनसे कहना कि हे प्रभु! आप तो घट घट वासी है। सबके मनोरथ को पूर्ण करने वाले हो। फिर आज आपने अपनी दासी रुकमणी को क्यों बिसरा दिया। ऐसी कौन सी चूक मुझसे हो गई, जिस कारण आपने मुझे बिसार दिया।और कहना कि अगर आप नहीं आए तो आपकी दासी जीवित नहीं बचेगी। इसलिए मैं आपको एक उपाय बताती हूं। एक दिन बाद हमारी कुल परंपरा के अनुसार दुल्हन को कुल देवी के मंदिर में पूजा करने के लिए ले जाया जाता है। और कुलदेवी का मंदिर नगर से बाहर है। जब मैं कुलदेवी की पूजा करने के लिए जाऊं, तो आप वहां आकर मेरा हाथ पकड़ रथ में बिठाकर मुझे वहां से ले आना।और कहना अगर आप नहीं आए तो आपकी दासी रुकमणी आप के विरह में अपने प्राण अर्पण कर देगी। इस प्रकार अश्रुपूरित नेत्रों से रुक्मणी ने संदेश लिखकर ब्राह्मण देवता को दिया। और कहा कि हे
ब्राह्मण देवता! अब आप विलंब ना कीजिए। आप शीघ्र अति शीघ्र द्वारिकापुरी में जा कर मेरे स्वामी द्वारिकाधीश तक मेरा संदेश पहुंचा दीजिए।।इस प्रकार ब्राह्मण देवता पाती लेकर रुक्मणी से विदा हो द्वारिका पुरी की ओर प्रस्थान करता है।
ब्राह्मण देवता का द्वारिका पहुंचना -:
इस प्रकार हे राजन! ब्राह्मण देवता पाती ले द्वारिकापुरी पहुंचते हैं। जैसे ही द्वारपाल ने जाकर भगवान श्री कृष्ण से कहा कि हे द्वारिकाधीश! कोई ब्राह्मण देवता आपसे मिलना चाहता है। भगवान श्री कृष्ण स्वयं द्वार पर आकर ब्राह्मण देवता का स्वागत सत्कार कर हाथ पकड़ कर राजभवन ले आते हैं। फिर उचित आसन पर बिठा कर कहने लगे। हे ब्राह्मण देवता! कहो किस कारण आपका आगमन हुआ है? तब ब्राह्मण कहने लगा कि मेमैं भीष्मक नंदिनी रुक्मणी का संदेश लेकर आया हूं। तब भगवान श्री कृष्ण कहने लगे कहो ब्राह्मण देवता! रुक्मिणी ने करता संदेश भेजा है।
कहिये आप कहां ते आये, कौन देश की पाती लाये।।
नीके राज देश तुम तनो,हमसों भैद कहो आपनो।
कौन काज यहं आवन भयो, दरस दिखाय हमै सुखदयो।।
तब ब्राह्मण देवता करने लगे हे भगवान! रुकमणी आप से प्रेम करती है। और उसने सच्चे भाव से आपको पति मान लिया है। लेकिन उसका भाई रुक्मी उसका विवाह चेदि नरेश शिशुपाल के साथ कर रहा है। और बारात पहुंच चुकी है। इसलिए भगवान रुक्मणी ने मुझे संदेश लेकर आपसे कहलवाया है। कि अगर आप समय से नहीं पहुंचे तो वह अपने प्राण त्याग देगी लेकिन शिशुपाल के साथ विवाह नहीं करेगी। और उन्होंने यह भी कहा है कि एक दिन पहले कुल परंपरा के अनुसार दुल्हन को देवी मंदिर में पूजा करने के लिए जाया जाता है। आप वहां आकर मुझ दासी को वहां से ले आना।।
प्रकार जब ब्राह्मण देवता ने पाती देकर भगवान श्री कृष्ण को रासा समाचार कह सुनाया। तब भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण देवता के दोनों हाथ अपने हाथ में लेकर कहने लगे। हे ब्राह्मण देवता! मैं आपसे क्या कहूं मैं भी रुक्मणी से बहुत प्रेम करता हूं। यहां तक कि मुझे रात को भी नींद नहीं आती है। मैं भी रुक्मणी का चिंतन करता रहता हूं। इसलिए अब हमें विलंब नहीं करना चाहिए। कुंडिनपुर की और प्रस्थान करना चाहिए।।इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ब्राह्मण देवता के साथ कुंडिनपुर की ओर प्रस्थान करते हैं।
रुक्मणी का देवी पूजन को जाना -:
इस प्रकार हे राजन! देवी रुक्मणी के लग्न बेला का समय आने लगा। सारे नगर में बड़े उत्साह और आनंद के साथ रुक्मणी विवाह उत्सव होने लगा। लेकिन अभी तक ब्राह्मण देवता का कोई संदेश नहीं आया।रुकमणी विरह के ज्वाला बढ़ती ने लगी रुकमणी जी अपनी सखी से कहने लगी।हे सखी! अब मुझे अपने प्राण त्याग ने होंगे क्योंकि ना तो माधव कृष्ण पधारे और ना ही ब्राह्मण देवता का भी कोई संदेशा आया। और लग्न की बेला का समय आने वाला है। अब मेरे प्राण धारण करना संभव नहीं है।।
रुक्मणी जी बड़े हर्ष और आनंद के साथ सोलह सिंगार कर सखियों के बीच कुल परंपरा रीति के अनुसार देवी पूजन को चली है। और एक रक्षकों की टोली भी उनके पीछे जाती है । इस प्रकार रुकमणी जी सखियों के साथ मंगल थाल सजाकर देवी की आरती करने पहुंची है।।
रुक्मणी ने देवी की पूजा की, मां जगदंबा ने प्रसन्न होकर शुभाशीष दिया। पूजा करके जैसे ही बाहर निकली।तो वहां भगवान श्री कृष्ण का रथ तैयार खड़ा है।।भगवान श्री कृष्ण को का प्रथम दर्शन करके देवी रुक्मणी रोमांचित हो गई। उसको अपने शरीर की सुध बुध नहीं रही। और जैसे ही प्रभु श्रीकृष्ण ने अपना हाथ बढ़ाया और रुक्मिणी का हाथ अपने हाथ में ले उसे रथ में चढ़ाए।
बिलखबदन चितवैचहुंओर, जैसे चंद्र मलिन भयेभोर।
अति चिंता सुंदरि जियबांढी,देखै ऊंच अटापरठाढीं।। चढिचढिउझकैखिरकी द्वार,नयननते छोडै जलधार।
दो०
बिलखबदन अति मलीनमन,लेत सास उसास।
व्याकुलवर्षा नयनजल, मोचति कहति उदास।।
इस प्रकार से जोर-जोर से विलाप करने लगी सखी कहने लगी, हे रुकमणी! धीरज धरो मेरा विश्वास है कि ब्राह्मण देवता आने ही वाला है। इस प्रकार देवी पूजने की तैयारियां संपूर्ण होने लगी। उसी समय भगवान श्री कृष्ण के साथ ब्राह्मण देवता आए हैं। और जाकर रुक्मिणी को भगवान श्री कृष्ण का संदेश सुनाया। कि हे रुकमणी! द्वारिकाधीश पधार चुके हैं। यह शब्द सुनकर रुक्मणी के प्रेम की मनोदशा का वर्णन शब्दों द्वारा नहीं किया जा सकता। उसके हृदय में प्रेम का समुद्र उमड़ने लगा। तब देवी रुक्मणी ने ब्राह्मण देवता को वरदान दिया और कुछ स्वर्ण मुद्रा देकर कहा कि हे ब्राह्मण देवता! मैं तुम्हें वचन देती हूं। कि कलयुग में कभी धन की कमी नहीं होगी। और इस प्रकार से शुभाशीष पाकर ब्राह्मण देवता वहां से विदा हो आए।।रुक्मणी जी बड़े हर्ष और आनंद के साथ सोलह सिंगार कर सखियों के बीच कुल परंपरा रीति के अनुसार देवी पूजन को चली है। और एक रक्षकों की टोली भी उनके पीछे जाती है । इस प्रकार रुकमणी जी सखियों के साथ मंगल थाल सजाकर देवी की आरती करने पहुंची है।।
भगवान श्री कृष्ण का रुक्मणी को ले जाना -:
रुक्मणी ने देवी की पूजा की, मां जगदंबा ने प्रसन्न होकर शुभाशीष दिया। पूजा करके जैसे ही बाहर निकली।तो वहां भगवान श्री कृष्ण का रथ तैयार खड़ा है।।भगवान श्री कृष्ण को का प्रथम दर्शन करके देवी रुक्मणी रोमांचित हो गई। उसको अपने शरीर की सुध बुध नहीं रही। और जैसे ही प्रभु श्रीकृष्ण ने अपना हाथ बढ़ाया और रुक्मिणी का हाथ अपने हाथ में ले उसे रथ में चढ़ाए।
कांपत गातसकुच मनभारी, छांडसबनहरिसंगसिधारी।ज्यो बैरागी छोड़ें गेह, कृष्ण चरण सै करै स्नेह।।
दो०
ज्यो बहु झुंडनि सियार के, परै सिंह बीचआई। अपने भक्षण लेइकै, चले निडर घहराय।।
जिस प्रकार से सिंह बहुत सारे सियारो के झुंड में से अपने शिकार को लेकर चल देता है। उसी प्रकार से भगवान श्री कृष्ण सैनिकों के बीच से रुक्मणी को रथ में बिठाकर लेकर चले गए।और फिर रथ को तीर वेग से हांकने लगे। रक्षकों ने जब पीछा किया तो भगवान ने एक ही बाण से सब का संहार किया।उस समय आकाश मंडल से देवता पुष्प वर्षा करने लगे हैं।।
जैसे ही महाराज! शिशुपाल रुक्मी को पता लगा कि कृष्ण रुक्मिणी को हर ले गया। शिशुपाल रुक्मी व उनके अनुयायी राजा भगवान श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिए पीछा करते हैं।उधर पीछे से जब भगवान श्री बलराम जी को पता लगाता कि कृष्णा अकेले ही कुंदनपुर गए हैं। तब वह पीछे से अपने कुछ सैनिकों की टुकड़ी लेकर आ रहे थे। मार्ग मे कृष्ण और बलराम में एक जगह मिल जाते हैं।। और इस प्रकार पीछे से जब शिशुपाल रुक्मी भारी सेना लेकर के कृष्ण का पीछा कर रहे थे।तब श्री कृष्ण और बलराम दोनों उनकी प्रतीक्षा करते हैं। जब शिशुपाल ने कृष्ण बलराम को ललकारा तो बलराम और श्रीकृष्ण ने एक साथ मिलकर सभी से युद्ध किया। और सारी सेनाओं का संहार कर दिया। तब शिशुपालादि राजा पराजित होकर अपमान का विष पीकर वापस लौटने लगे।।दो०
यादव असुर न सोंलरत, होत महासंग्राम।
ठाडे देखत कृष्ण है, करत युद्ध बलराम।।
लेकिन महाराज! रुक्मी वापस नहीं आया। रुक्मी कहा कि मैं जब तक कृष्ण को दंड नहीं दूंगा। तब तक घर नहीं लौटूंगा। ऐसा कह कर भगवान श्री कृष्ण के पीछे जाने लगा। तब भगवान श्री कृष्ण और बलराम ने रुक्मी की सेना का संहार करके उसे रथ से पटक दिया, और श्री कृष्ण छाती पर चरण रखकर खड़े हो गए। उसी समय देवी रुक्मणी भगवान के श्री चरणों में गिर गई। और कहने लगी,हे प्रभु! मैं जानती हूं कि यह हमारा अपराधी है। लैकिन प्रभु! मेरा आपसे निवेदन है। कि रूक्मी मेरा ज्येष्ठ भ्राता है। अतः इसे क्षमा का दान दीजिए। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसका अपमान करके उसे प्राण दान दिया।।मारो मत भैया है मेरो, छांडो नाथ तियारो चेरो।
मुर्ख अंध कहा यह जानै, लक्ष्मीकंतहि मानुष मानै।।तुम योगीश्वर आदि अनंत, भगत हेतु प्रगटे भगवंत।
यह जड़ कहा तुम्हें पहचाने, दीन दयालु कृपालु बखाने।।।
इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने रुक्मणी के कहने पर रुक्मी को बंदी बना करके छोड़ दिया। लेकिन रुक्मी ने प्रतिज्ञा की थी। कि वह कृष्ण का दंड दिए बिना वापस नगर को नहीं जाएंगे। इसलिए उसने वहीं भोजपुर नामक नगर बसाकर निवास करने लगा।।श्री कृष्ण रुक्मणी का द्वारिका में भव्य स्वागत व वैदिक रीति से विवाह संपन्न -:
हे राजन! इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण बलराम के साथ शिशुपाल जरासंध रुक्मि को पराजित करके द्वारिका के निकट पहुंचे हैं।जब द्वारिका वासियों को ज्ञात हुआ। कि श्री कृष्ण रुक्मणी के साथ द्वारिका पधार रहे हैं। तो सारी द्वारका वासी बड़े प्रसन्न चित्त होकर सारी द्वारिका को सजा दिया जाता हैं। और सारे द्वारिका वासी मंगल थाल सजाकर गाजे-बाजे के साथ नाचते गाते भगवान श्री कृष्ण रुक्मणी जी का भव्य स्वागत करने के लिए पहुंचे हैं।।
जैसे श्री कृष्ण रुक्मणी का रथ नगर के बाहर आ कर रुका ।सभी ने श्री कृष्ण जी का भव्य स्वागत किया। गाजे-बाजे आनंद के साथ द्वारिका में प्रवेश करते हैं ।देव दुन्दुभियां बजती है। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगती है।। इस प्रकार पूरी द्वारिका में घर-घर मंगल बतावे बजने लगे।। तब महाराज उग्रसेन जी ने गर्गाचार्य की मंत्रणा से शुभ मुहूर्त व लग्न साद
कर श्री कृष्ण और रुक्मणी जी का वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ पानी ग्रहण संस्कार संपन्न करवाया जाता है।।
इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण और रुक्मणी का विवाह संपन्न होता है। और सभी लोग श्री कृष्ण रुक्मणी को चिरंजीवी होने का शुभ आशीष देते हैं। इसके बाद विवाह उत्सव में पधारे सभी अतिथियों का मान सम्मान करके उपहार दे करके उनको विदा किया जाता है।
शुकदेवमुनि राजा परिक्षित से कहते हैं। कि राजन! जो इस कृष्ण रुक्मणी मंगल को सुनता है पढता है और गाता है उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं ।।
।। जय श्री कृष्णा चंद्र भगवान की जय।।
आचार्य श्री कृष्ण कुमार शास्त्री
9414657245
उडीरेनू आकाश जुछाई, तब ही पुरवासीन सुध पाई।।
दो०
आवत हरि जाने जब हिं, राख्यो नगर बनाय।
शोभा भ ई तिहूं लोककी, कहीं कौनपैजाय।।
जैसे श्री कृष्ण रुक्मणी का रथ नगर के बाहर आ कर रुका ।सभी ने श्री कृष्ण जी का भव्य स्वागत किया। गाजे-बाजे आनंद के साथ द्वारिका में प्रवेश करते हैं ।देव दुन्दुभियां बजती है। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगती है।। इस प्रकार पूरी द्वारिका में घर-घर मंगल बतावे बजने लगे।। तब महाराज उग्रसेन जी ने गर्गाचार्य की मंत्रणा से शुभ मुहूर्त व लग्न साद
कर श्री कृष्ण और रुक्मणी जी का वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ पानी ग्रहण संस्कार संपन्न करवाया जाता है।।
पंडित तहांवेद उच्चारे,रुकमणी संग हरी भांवर फिरै।
ढोल दुंदुभी भेरी बजावै, हरषहि पुष्प वरसावै।।
सिद्ध साधचारण गंधर्व, अंतरिक्ष भये देखै सर्व।
चढ़े विमान श्रीमानघिरे शिरनावें, देव वधू सब मंगल गावे।।
हाथ गयो प्रभु भांवरपारी, वाम अंग रुकमणी बैठाती।
छोरगांठ पटा घाटफिर दियो,कुल देवी को पुजन कियो।।
तोरण कंकण हरी सुन्दरी,खेलते दुधा भाती करी।
अति आनंदरच्यो जगदीश, निरखि हरषिसबदेहिं आशीष।।
हरी रुकमणी जोड़ी चीर जीवो, जिनको चरित्र सुधा रस पिवो।
दीनो दान विप्रजे आये, मागध बंदीजन पहिराये।
जे नृप देश देश के आये, दीनि विदा सबै पहुंचाये।।
इस प्रकार ब्राह्मण वेद मंत्रोच्चारण करने लगे और श्री कृष्ण रुकमणी अग्नि के फेरे खाने लगे उस समय आकाश मंडल से देवता लोग पुष्प वर्षा करते हुए देवदुंदुभीयां बजाने लगे और अपने भाग्य को सरहाने लगे।।इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण और रुक्मणी का विवाह संपन्न होता है। और सभी लोग श्री कृष्ण रुक्मणी को चिरंजीवी होने का शुभ आशीष देते हैं। इसके बाद विवाह उत्सव में पधारे सभी अतिथियों का मान सम्मान करके उपहार दे करके उनको विदा किया जाता है।
शुकदेवमुनि राजा परिक्षित से कहते हैं। कि राजन! जो इस कृष्ण रुक्मणी मंगल को सुनता है पढता है और गाता है उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं ।।
।। जय श्री कृष्णा चंद्र भगवान की जय।।
आचार्य श्री कृष्ण कुमार शास्त्री
9414657245
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