जय श्री राधे राधे
(३२)
भागवत में चर्चा प्रसंग में आज हम बात चर्चा करते हैं। महाराज युधिष्ठिर द्वारा राज सूर्य का आयोजन करना और भगवान श्री कृष्ण के निर्देशन में भीम द्वारा जरासंध का वध कर बीस हजार राजाओं को जरासंध के केंदि से मुक्त करना। तो आइए आज की कथा प्रसंग में इस दिव्य लीला प्रसंग का पान करते हैं।।
जरासंध के कैदी राजाओं के दुत का द्वारिका पुरी में आना -:
शुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहते हैं। कि हे राजन! भगवान श्री कृष्ण अपने पुत्र पौत्रादि बंधु बांधव के साथ द्वारिकापुरी में रहते हुए पृथ्वी पर भार स्वरूप दुष्टो का संघार कर रहे थे। इसी क्रम में एक दिन भगवान श्री कृष्ण रुकमणी जी के साथ अपने भवन में विराजमान थे। उसी समय मगध देश से एक ब्राह्मण राजा जरासंध की कैद में बंदी राजाओं का संदेश लेकर के आया। द्वारपाल ने जब जाकर भगवान श्री कृष्ण से कहा कि हे भगवान! मगध देश से कोई ब्राह्मण दूत रूप में आपसे मिलने के लिए आया है। तब भगवान श्रीकृष्ण ने आदर सहित दूत को राज्यसभा में बुलवाया और ब्राह्मण देवता को समुचित आसन दे कर अतिथि सत्कार किया गया। भगवान श्रीकृष्ण हाथ जोड़कर कहने लगे हे विप्र देवता! कहो किस कारण आपका आगमन हुआ है? और हम आपकी क्या सहायता कर सकते हैं। तब ब्राह्मण कहने लगा कि भगवन में मगध देश के राजा जरासंध की कैद में बंदी राजाओं की तरफ से उनका संदेश लेकर आपकी शरण में आया हूं। महाराज उन्होंने कहा है कि राजा जरासंध ने हम बीस हजार राजाओं को बंदी बना कर रख रखा है। प्रभु! उन्होंने आपसे विनती की है कि आपका अवतार दुष्टों का संहार करने के लिए हुआ है। अब आप कृपा करके उनको भी दुष्ट जरासंध की कैद से मुक्त करके उन्हें अभयदान प्रदान कीजिए। तब भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि विप्र देवता! आप जाकर कि उनसे कहना कि आप निश्चिंत हो जाइए। अब यह चिंता तुम्हें नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह चिंता अब मैं स्वयं करूंगा। और अति शीघ्र ही जरासंध का वध करके उनको मुक्त करूंगा। ऐसा कहकर भगवान श्री कृष्ण ने ब्राह्मण देवता को विदा किया और ब्राह्मण देवता भगवान श्री कृष्ण से भेंट कर अपनी राजधानी को लौट आता है।।
देव ऋषि नारद का द्वारिकापुरी में पधारना -:
इस प्रकार शुकदेव मुनि कहते हैं। कि हे राजन! जब भगवान श्री कृष्ण मगध देश से आए ब्राह्मण देवता को विदा ही कर रहे थे। उसी समय आकाश मंडल से दिव्यापुंज स्वरूप देवर्षि नारद हाथ में वीणा लिए हुई द्वारिका के राजभवन पधारते हैं। भगवान देव ऋषि नारद को आया हुआ जान सभी बड़े प्रसन्न हुए। महाराज अग्रसेन ने अपने राजसभा में नारदजी को समुचित स्वागत सत्कार करके आसन देखकर बिठाया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने हाथ जोड़ कर कहा कि हे देव ऋषि! आप की गति तो सर्वत्र तीनों लोकों में विचरण शील है। अब आप कृपा करके हमें यह बताएं कि हमारी बुआ के पुत्र युधिष्ठिर कैसे हैं क्योंकि उनके समाचार प्राप्त यह हुए बहुत समय हो गया है। वह क्या कर रहे हैं? तब नारद जी कहने लगे कि महाराज! इस समय कुंती पुत्र युधिष्ठिर राज सूर्य यज्ञ करने का विचार कर रहे हैं। और हर बार वे यही कहते हैं कि यह कार्य श्री कृष्ण के बिना संभव नहीं हो सकता है। अतः आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।मैं उन्हीं का संदेश लेकर आपके पास आया हूं। अतः आप कृपा करके हस्तिनापुर जाकर महाराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ संपन्न करवाने की कृपा करें। यह जानकर महाराज उग्रसेन सहित सभी यदुवंशी बड़ी प्रसन्न हुए और देव ऋषि नारद को आदर के साथ विदा किया गया।।
भगवान श्री कृष्ण का परिवार सहित इंद्रप्रस्थ प्रस्थान करना -:
इस प्रकार हे राजन! जब देव ऋषि नारद विदा हुए, तब भगवान श्रीकृष्ण ने राज्यसभा में उद्धव जी को बुलवाया और परिवार सहित अग्रसेन जी के सानिध्य में विचार करने लगे कि,इस समय हमारे पास दो जगह से एक साथ संदेश आया है। एक तरफ जरासंध के कैदी राजाओं ने उनको मुक्त करने के लिए हमें आमंत्रित किया है। और दूसरी तरफ देव ऋषि नारद ने महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जाने का निमंत्रण लेकर के आए हैं। अब हमें पहले किस कार्य को सिद्ध करना चाहिए। इसी बात पर विचार होने लगा। तब उद्धव जी ने कहा कि भगवान मेरी मति के अनुसार हमें सबसे पहले पहले महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चलना चाहिए। क्योंकि राज सूर्ययज्ञ वही करता है जो चारों दिशाओं में विजय प्राप्त कर सके। और जब महाराज युधिष्ठिर चारों दिशाओं को विजय प्राप्त कर लेंगे। तभी उनका राज सूर्य यज्ञ संपन्न होगा। इसलिए महाराज युधिष्ठिर को राज सूर्य यज्ञ करने के लिए मगध राज जरासंध का ओ भी जीतना होगा। इसलिए हमें महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में इंद्रप्रस्थ चलना चाहिए।
पहले उनको यज्ञ संवारो, पाछे अनत कहूं पगुधारो।।
ऐसा विचार कर भगवान श्री कृष्ण अपने सभी बंधु बांधवों सहित आठो पट रानियों को लेकर इंद्रप्रस्थ की और प्रस्थान करते हैं।महाराज युधिष्ठिर ने जब देखा कि श्री कृष्ण बंधु बांधव सहित हमारे यहां पधारे हैं। तब महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों सहित भगवान श्री कृष्ण की अगवानी के लिए नगर के बाहर जाते हैं। और बड़े आनंद प्रेम के साथ स्वागत सत्कार कर गाजे-बाजे के साथ भगवान श्रीकृष्ण को अपने बंधु बांधव सहित इंद्रप्रस्थ के राजभवन लाते हैं।।
श्री कृष्ण अर्जुन भीम का ब्राह्मण वेश में जाकर जरासंध से युद्ध की भिक्षा मांगना -:
शुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहते हैं कि हे राजन! जब महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण सें राज सूर्य यज्ञ की मंत्रणा करने लगे। तब उन्होंने कहा कि हे माधव! अब हमें आगे की रणनीति बनानी चाहिए। आप कृपा करके हम सब का मार्गदर्शन करे। तब भगवान श्री कृष्ण कहने लगे हे भ्राता श्री! हमें सबसे पहले चारों दिशाओं के राजाओं पर विजय प्राप्त करनी होगी। अतः चारों दिशाओं में हमारे वीरों को जाना चाहिएऔर जो राजा आपकी दासता स्वीकार नहीं करें उसे युद्ध करके हमारे अधीन करना होगा। तब भीम अर्जुन नकुल सहदेव चारों भाई अलग-अलग दिशाओं में युद्ध करने के लिए चले जाते हैं ।और विजय प्राप्त करके आते हैं। लेकिन जब चारो दिशाओं के राजाओं ने महाराज युधिष्ठिर की दासता स्वीकार की परंतु मगध देश के राजा जरासंध अभी भी अपराजय थे। तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हे भ्राता! मगध राज जरासंध से मैं स्वयं भी पराजित हो चुका हूं। अतः हम सीधे तौर पर उससे युद्ध करके विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अतःहमे उसे मल्ल युद्ध की भिक्षा लेकर ललकारना चाहिए। और तब मल्लयुद्ध के द्वारा भीमसेन उसका वध कर सकते हैं। ऐसा विचार करके भीम अर्जुन व भगवान श्री कृष्ण तीनों ब्राह्मण का वेश धारण कर मगध देश के राजा जरासंध के द्वार पर पहुंचे, और भिक्षाम देहि, भिक्षा देहि, की टैर लगाने लगे। उनकी टैर सुनकर जरासंध आया और कहने लगा है ब्राह्मण देवताओं! तुम्हारा रूप देखकर लगता है कि तुम ब्राह्मण नहीं हो क्योंकि तुम्हारी शारीरिक संरचना तो वीर क्षत्रियो जैसी लगती है। फिर भी कहो तुम्हें भिक्षा में क्या चाहिए।
याचक जो पर द्वारे आवै, बडो भूपसोउ अतिथिकहावै।
विप्र नहीं तुम योद्धा बली, बात न कछु कपट की भली।।
जोठगठन रुप धरि आवै, ठगिते ते भलों न कहावै।
छिपै न क्षत्रिय कांति तिहारी, दीसतशुर बीरबल धारी।।
तेजवंत तुम तीनो भाई, शिव बिरंचि हरि से वर दाई।
मैं जान्यो जियकर निर्माण, करो देव तुम आप बखान।।
तुम्हारी इच्छा होसो करौ, अपवाचते नहिं मैं टरौ।
दानी मिथ्या कबहुंन भांषै, धन तन सर्वस कछु न राखै।
मांगौ सोहिल देहौ दान,सुत सुंदरी सर्वस्व परान।।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हे राजन! आपकी दान शीलता जगत में सर्वश्रेष्ठ है। आपकी दान शीलता राजा हरिश्चंद्र, महर्षि दधीचि, महर्षि शिवी के समान विश्व विख्यात है। आपके द्वार पर युद्ध की भिक्षा लेने की आश लगा कर आए हैं।मगध राजा जरासंध कहने लगा अरे मैं समझ गया हूं। हो ना हो तुम तो मेरे पुराने पुराने शत्रु रणछोड़ कृष्ण हो। मैं तुम्हें युद्ध की भिक्षा देता हूं। इतना कहते ही कृष्णा अर्जुन और भीम अपने असली रूप में आ जाते हैं। तब जरासंध जोर जोर से हंसने लगा और कहने लगा अरे देखो कृष्ण! तुमसे तो क्या युद्ध करना, तुम तो पहले ही मेरे से हारे हुए हो। अर्जुन है जो मेरे सामने बालक लगता है। हां भीम जरुर मेरे से युद्ध करने लायक है । अतः मैं भीमसेन को मल्ल युद्ध की भिक्षा देता हूं।।
मगधराज जरासंध का वध -:
इस प्रकार जरासंध कहने लगा की आप मेरे द्वार पर अतिथि बनकर आए हो इसलिए पहले तुम मेरे भवन में चल करके भोजन कीजिए। इसके बाद मैं आपसे मल्लयुद्ध करूंगा। तत्पश्चात श्री कृष्ण भीम और अर्जुन जरासंध का आथित्य स्वीकार करते हैं। फिर जराजंध अपनी गधा लेकर के आता है और भीमसेन के साथ मल्ल युद्ध करना प्रारंभ करता है।इस प्रकार भीमसेन और मगध नरेश जरासंध अपनी-अपनी गधा लेकर के आपस में युद्ध करना प्रारंभ करते हैं।
ताकत घातै अपनी अपनी, चोट करत बाई अरु दाहिनी।
अंग बचाई उछरी पग धरै,झपटहिं गदा गदा सोलरै।।
खटपट चोट गदा पटवारी, लागत शब्द कोलाहल भारी।।
और दोनों ही एक दूसरे पर घात लगाकर के प्रहार करते रहते हैं। लेकिन महाराज! बिना भोजन कीए और बिना विश्राम कीए लगातार युद्ध चलता रहा। लेकिन दोनों वीरो में से कोई भी ना तो हारता है ना जीता है। इस प्रकार यह युद्ध 27 दिनों तक लगातार चलता रहा ।क्योंकि जरासंध के शरीर को बार-बार भीमसेन चीरकर के आकाश में फैक देते हैं। फिर भी उसके शरीर के दोनों भाग आपस में मिल कर जीवित हो जाते है। भगवान श्री कृष्ण जी ने मन में विचार किया। यह तो इस प्रकार नहीं मारा जाएगा। क्योंकि जब यह जन्मा था दौ फांक हो जन्मा था। उस समय जरा राक्षसी ने इसके मुंह और नाक मूंदे तब यह दोनों फांक आपस में मिल गई थी। उसी समय उसके पिता ने ज्योतिषियों को बुलाकर पूछा कि कहो इस लड़के का नाम क्या होगा और कैसा होगा? तब ज्योतिषियों ने कहा था। कि महाराज इसका नाम जरासंध होगा और यह बड़ा प्रतापी और अजर अमर होगा। तब इसकी संधि ने फटेगी तब तक यह किसी से नहीं मारा जाएगा। इतना कह ज्योतिषी विदा हो चले गए ।महाराज! यह बात श्री कृष्ण चंद्र जी ने मन ही मन विचार किया और अपना बल भीमसेन को दिया।तथा एक तिनका लेकर भीमसेन को दिखा करक उसे चीरते हैं। फिर इसे विपरीत दिशा में फेंकते हैं।इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने भीमसेन की तरफ इशारा किया। तब भीम ने जरासंध के शरीर को दो भागों में चीर कर उसे विपरीत दिशा में फेंक दिया। जिससे जरासंध का अंत हो गया। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। उसी समय जरासंध की पत्नी अपने पुत्र को लेकर के श्री कृष्ण के सामने आकर विलाप करने लगी और कहने लगी हे कृष्ण! तुमने बहुत भला किया क्योंकि मेरे प्राणनाथ ने तुम्हें अपना सर्वस्व दान कर दिया उसके बदले तुमने उनका वध करवा लिया।
कपाट रूप कर छल बलकियो, जगत हाय तुम यह यशलियो।।
इस प्रकार जरासंध की रानी ने जब श्री कृष्ण के आगे हाथ जोड़ विनती कर यो कहा, तब प्रभु ने पहले जरासंध का क्रिया कर्म संस्कार करवाया। फिर उसके पुत्र सहदेव को बुलाकर राजतिलक दे सिंह आसन पर बिठाया, और कहा कि हे पुत्र! अब तुम नीति से शासन करो और ऋषि मुनि गो ब्राह्मण प्रजा की रक्षा करो।।
इस प्रकार महाराज जरासंध के पुत्र सहदेव को राजा बना करके भगवान श्री कृष्ण ने जरासंध के कारागृह में बंदी बने हुए २०००० राजाओ को बंधन मुक्त करवाया। फिर बंदी राजाओं ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति वंदन की।तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण ने उन सभी राजाओं से कहा कि अब आप आनंद से अपने बंधु बांधवों के साथ अपना राजकाज संभालो। और महाराज युधिष्ठिर के राज सूर्य यज्ञ में जरुर पधारो।इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण के कहने पर बंदी राजाओं को समुचित उपहार व आवश्यक सामान उपलब्ध करवाकर जरासंध पुत्र सहदेव ने उनको विदा किया।।
इस प्रकार है राजन भगवान श्री कृष्ण जरासंध का वध करवा करके उसके पुत्र सहदेव को राजा बना करके भीम अर्जुन के साथ इंद्रप्रस्थ लौट आते हैं। जरासंध की मृत्यु का समाचार सुनकर युधिष्ठिर महाराज बड़े प्रसन्न होते हैं।।
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