पौंड्रक उद्धार -:

  • जय श्री राधे राधे

(२९)
बलराम जी का मथुरा गमन


आज की भागवत चर्चा में प्रिय भगावत रसिक जनों! आज हम भगवान श्री कृष्ण की दिव्य लीला कथा प्रसंग में भगवान श्री बलराम जी का वृंदावन गमन व काशी नरेश पौंड्रक उद्धार कथा प्रसन्न की चर्चा करते हैं। तो आइए प्रेम से भागवत लीला अमृत कथा का पान करते हैं।

भगवान श्री बलराम जी का वृंदावन गमन -:

शुकदेव मनी राजा परीक्षित से कहते हैं। कि हे राजन! जब भगवान श्री कृष्ण द्वारिका में अपने बंधु बांधव पुत्र पौत्रादि  के साथ धर्म परायण शासन करते हुए, निवास कर रहे थे। इसी क्रम में एक दिन भगवान श्री कृष्ण बलराम जी संध्या के समय बैठे हुए थे। तब भगवान श्री बलराम जी कन्हैया से कहने लगे हे कृष्ण! देखो हम जब वृंदावन से मथुरा आए थे। तब मैया बाबा ब्रज वासियों को कह कर आए थे। कि हम अवश्य आएंगे।

सो हम मथुरा छोड़कर के द्वारिका में रहने लग गए, जो कि वृंदावन से काफी दूर है। और  कार्यो की व्यस्था में हम वृंदावन भी नहीं जा सके। अब मैं चाहता हूं, कि मैं बाबा मैया सहित वृंदावन वासियों से मिल आता हूं। यह सुनकर  भगवान श्री कृष्ण अति प्रसन्न हुए, और कहने लगे देखो दाऊ! तुमने यह बहुत अच्छा मन में विचार किया है ।तुम शीघ्र बृंदावन जाकर  बाबा नंद और मैया यशोदा की सुध लो। और सभी वृंदावन वासियों सहित गोप गोपियों को सुखद करो।

बलराम जी का वृंदावन पहुंचना -:

इस प्रकार वृंदावन वासियों सहित  मैया यशोदा बाबा नंद से मिलने के लिए भगवान श्री  बलराम जी द्वारिका से वृंदावन की ओर चल देते हैं। भ्रमण करते हुए द्वारका से पहले अवंतिका गुरु आश्रम गए, गुरु माता व गुरु से मिलकर  वहां से विदा होकर  वृंदावन को पहुंचे।

विद्या गुरु को कियो प्रणाम, दिन दस ता रहे बलराम।।

  वृंदावन  पहुंचकर श्री बलराम जी ने देखा कि सभी वृंदावन वासी श्री कृष्ण की लीलाओं का गान करते रहते हैं। और अपना काम करते हैं। गाय और बछड़े श्री कृष्ण के वियोग में रंभा रंभा करके अपना खेद जताकर  मानो श्री कृष्ण को याद कर रहे हो। जब ऐसी दशा वृंदावन वासियों की श्री बलराम जी महाराज ने देखी, तब उनकी आंखों में अश्रु बहने लगे, तत्पश्चात बलराम जी के बाबा नंद और यशोदा को देख कर उनकी आंखों में सुख के अश्रु बहने लगे। मैया यशोदा बाबा नंद ने बलराम जी को अपने छाती से लगाया और उनका मुख मंडल चूमने लगे। बार-बार श्री बलराम जी को प्यार करने लगे।

गहे चरण यशुमति के जाय, उनहित कर उर लिए लगाए।

 भुज भरि भेंट कंठ गहि रही, लोचन ते जल सरिता वही।।

 फिर इस प्रकार भोजन करके बाबा नंद यशोदा श्री कृष्ण के बारे में बात करने लगे, उनके बारे में बात करते करते नंद यशोदा के आंखों में अश्रु बहने लगे, और सारी रात बलरामजी से मैया यशोदा व बाबा  श्री कृष्ण के कार्यों का हाल पूछते रहे।

 जब श्री वृंदावन वासियों को पता लगा कि बलराम जी आते हैं। सभी बलराम जी को देख कर बड़े प्रसन्न हुए। बलरामजी ने  सबको गले लगाया और सबको आनंदित किया। गोपियां
 बलराम जी से आकर मिली और कहने लगी, कन्हैया को क्यो नहीं लाए? कन्हैया हम सबको भूल गये,। 

मथुरा ते गोकुल ढिगजान्यो, बसी दूर तबहीं मनमान्यो।

 भेंट न मिलन आवते  हरि, फिर न मिले ऐसी उन करी।।

कन्हैया ने द्वारिका में जाकर सोलह हजार एक सौ आठ विवाह कर लिए और हमको कभी उसने याद नहीं किया। इस प्रकार बलराम जी भगवान श्री कृष्ण की सारे कार्यों की बात बताते हैं ।और श्री कृष्ण का  संदेश भी सुनाते हैं। और वृंदावन वासियों को सुख पहुंचाने के लिए बलराम जी क ई दिन वृन्दावन रुकते हैं।और गोपियों के साथ रास रचाते हैं ।
तत्पश्चात चार महीने बाद बलराम जी मैया यशोदा बाबा नंद गोपग्वाल सहित गोपियों से विदा होकर द्वारिका लौटते हैं।


काशी नरेश पौंड्रक का श्रीकृष्ण को युद्ध के लिए ललकारना -: 

राजन! काशी नरेश पौंड्रक अपने को द्वारिकाधीश श्री कृष्ण मानता था। इसलिए वह भगवान श्री कृष्ण का वेश धारण करके स्वयं को द्वारिकाधीश भगवान श्री कृष्ण घोषित कर रखा था। अपने आप को द्वारिकाधीश मान कर श्री कृष्ण जैसा ही आचरण करने में लगा रहता था। एक  दिन राजा पौंड्रक ने अपने राज्य सभा में प्रस्ताव रखा कि मैं श्री कृष्ण भगवान हूं।और पृथ्वी का भार उतारने के लिए मेरा जन्म हुआ है। लेकिन मैंने सुना है कि कोई द्वारिका में मेरा रूप धारण करके भी रहा है मैं उसका वध करुंगा। इसलिए उसने दुत के द्वारा भगवान श्री कृष्ण को समाचार भेजा, कि हे कृष्ण! तुमने महाराज पौंड्रक का झूठा भेष बना रखा है। अतः समय रहते आप या तो अपना यह वेष उतार दो, या फिर महाराज पौंड्रक से युद्ध करना स्वीकार करो। ऐसा संदेश दुत द्वारा काशी नरेश द्वारकाधीश भगवान श्री कृष्ण को भेजता है।

को है कृष्ण द्वारका रहे,बाको वासुदेव जग कहै।

भक्तहेत भूहौ औतरयो,मेरो बेष तहां तिन धरयो।।

 संदेश लेकर के दुत द्वारिका में पहुंचा। राज्यसभा में भगवान श्री कृष्ण बलदाऊ अपने श्रेष्ठ जनों के साथ विराजमान थे। उसी समय दुत का आगमन हुआ। और बोला महाराज में काशी नरेव का दूत हूं।  काशी नगरी से  मेरा आगमन हुआ है। मै महाराज पोंडरुक का संदेश लेकर के आया हूं। महाराज! काशी नरेश पौंड्रक ने आपको कहलवाया है। कि आपने उनका झूठा वेश बनाकर श्री कृष्णा बने हुए हो। इसलिए आप अपना यह छद्म वेश छोड़कर काशी नरेश की शरण ग्रहण करें, अन्यथा महाराज पौंड्रक  से युद्ध स्वीकार करें,जो इस समय पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री कृष्ण के रूप में उतार ले रखे हैं। दुत द्वारा यह संदेश सुन  भगवान श्री कृष्ण हंसते  हुए बोले, हे धुत!तुम जाकर के अपने स्वामी  से कहो कि मैं अपना यह वेष तो उतार नहीं सकता और तुमसे युद्ध करने के लिए आ रहा हूं।यो कहकर दुत को वहां से विदा किया।

काशी नरेश पौंड्रक का वध -:

 तब भगवान श्रीकृष्ण पौंड्रक से युद्ध करने काशी  जाते हैं।उधर जब पौंड्रक को पता लगा कि कृष्ण मेरे युद्ध करने आ रहा है।तब वह भी विशाल सेना लेकर  नगर से बाहर श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिए आ खड़ा हुआ। तब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि पौंड्रक ने स्वयं उनका जैसा रूप बना रखा है।

  कृष्ण को देखकर कहने लगा, हे कृष्ण! तुमने मेरा यह छद्म वेष बनाकर के दुनिया वालों को मूर्ख बनाया है। अब मैं तुम्हें इस कार्य का दण्ड दूंगा। ऐसा कहकर भगवान श्री कृष्ण के ऊपर बाण चलाने लगा। तब भगवान श्रीकृष्ण  सुदर्शन चक्र का आह्वान किया। और देखते-ही देखते सुदर्शन चक्र से पौंड्रक का सिर धड़ से अलग हो गया।

कटतशिश नृप  पौंड्रकतरयो, शीश जाय काशी में में परयो।

  जहां हुतो ताको रनिवासु, देखत शीश सुंदरी तासु।।

 रोवे यो कहिं खैचै बार, यह गति कहा भई करतार।

 तुम तो अजर अमर रहे भये, कैसे प्राण पलक में गए।।


  तत्पश्चात पिता की मृत्यु से भयभीत होकर  पोंडरक का पुत्र भगवान श्री कृष्ण से बदला लेने के लिए भगवान शंकर की उपासना करने चला गया। भगवान श्री शंकर  प्रसन्न हुए और वरदान  मांगने को कहा, तब उसने  भगवान श्री शंकर  से वर मांगा। कि मुझे श्री कृष्ण का वध करने वाली कोई शक्ति प्रदान करे। तब भगवान शंकर ने कहा कि तुम उल्टे वेद मंत्रों से हवन करो। जिससे एक राक्षसी कृत्या उत्पन्न होगी। वह तुम्हारे शत्रु को कष्ट पहुंचाने वाली होगी। ऐसा कहने पर पौंड्रक पुत्र वेद मंत्रों का उल्टा उच्चारण कर हवन करने लगा। जिससे एक कृत्या उत्पन्न हुई। और वह भयंकर अग्नि की ज्वाला का रूप धारण करके भूमंडल को जलाती हुई भगवान श्री कृष्ण के पीछे पीछे द्वारिका तक पहुंच गई। भगवान श्री कृष्ण को पता लगा कि यह कार्य पौंड्रक पुत्र का है।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य अस्त्रों से उस कृत्या का वध किया। कृत्या के नष्ट होते ही द्वारिका की ओर बढ़ने वाली अग्नि समाप्त हो जाती है। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने काशी नरेश पौंड्रक का उद्धार किया।।

 ।।जय बोलो द्वारिकाधीश भगवान की जय।।


आचार्य श्री कौशल कुमार शास्त्री

 9414657245





Post a Comment

0 Comments