नल दमयंती कथा भाग - 4

जय श्री राधे राधे


जैसा कि हमने पूर्व भाग में जाना की दमयंती राजा नल को खोजती हुई राजा सुबाहु के महल में दासी का कार्य करती हुई रहने लगी है। जानते हैं इसके आगे की कथा आज की चर्चा में


नल का रूप बदलकर ऋतु प्रण का सारथी बनना, भीम के द्वारा नल दमयंती की खोज और दमयंती का मिलना -:

मुनी वृहदश्रवजी कहते हैं कि हे युधिष्ठिर! जिस समय राजा नल दमयंती को सोती छोड़ कर आगे बढ़े, उस समय बन में दावा अग्नि लग रही थी। नल के  कानों में आवाज आईकी है राजा नल शीघ्र आओ मेरे प्राण बचाकर  मुझे निकालो। नल ने कहा डरो मत वे दौड़कर दावाग्नि में घुस गए और देखा कि नागराज कर्कोटक कुंडली बांधकर पड़ा हुआ था। उसने हाथ जोड़कर नल से कहा राजन! मैं ककोटक नाम का सर्प हूं। मैंने तेजस्वी ऋषि नारद को धोखा दिया उन्होंने श्राप दे दिया कि जब तक राजा नल तुझे न उठाए  तब तक यहीं  पड़ा रह।  उसके उठाने पर तु श्राप से छूट जाएगा। उनके श्राप के कारण मै यहां से एक पग भी हटा आप मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हें हित की बात बताऊंगा। तुम्हारा मित्र बन जाऊंगा, मेरे भार से डरो मतो मैं अभी हल्का हो जाता हूं। और वह अंगूठे के बराबर हो गया।नल उसे उठा कर दावाग्नि से बाहर ले आए। ककोटक ने कहा कि मुझे पृथ्वी पर न डालो। कुछ पगो तक गिनकर आगे चलो। राजा नल ने गिनकर जैसे ही दसवां पग रखा और कहा दस तो ककोटक ने राजा नल को ढंस लिया। उसका नियम था कि जब कोई दस अर्थात ढंसों कहता तभी वह ढंसता अन्यथा नहीं। इस प्रकार काकोटक के ढंसते ही नल का पहला रूप बदल गया और ककोटक  अपने रूप में ही हो गया। तब ककोटक ने राज  से कहा की अब तुम्हें कोई पहचान ना सके इसलिए मैंने तुम्हारा रुख बदल दिया। कलयुग ने तुम्हें बहुत दुखी दिया तुम्हारेहै। अब वह मेरे विषय तुम्हारे शरीर में बहुत दुखी रहेगा। तुमने मेरी रक्षा की है। अब तुम्हें हिंसक, पशु पक्षी, शत्रु और ब्राह्मणों के श्राप आदि से कोई भय नहीं रहेगा।अब तुम पर किसीके विष का प्रभाव नहीं होगा और युद्ध में सर्वदा तुम्हारी जीत होगी ।अबतुम अपना नाम बाहुक रख लो और ध्यौत कुशल राजा रितु प्राण की नगरी अयोध्या में चले जाओ।तुम उन्हें घोड़ों की विद्या बतलाना और वे में जुए के रहस्य बतला देंगे और तुम्हारे मित्र भी बन जाएंगे।   जुए का रहस्य जान लेने पर तुम्हारी पत्नी पुत्री पुत्र राज्य सब कुछ मिल जाएगा। जब तुम अपने पहले रुप को धारण करना चाहो तो मेरा स्मरण करना और मेरे दिव्य वस्त्र धा रथरण कर लेना। यह कहकर ककोर्टक ने दो दिव्य वस्त्र दिए और वहीं से अंतर्ध्यान हो गया।

राजावहां से चलकर दसवे दिन राजा रितु प्रण की राजधानी अयोध्या में पहुंच गये।उन्होंने वहां राजदरबार में निवेदन किया कि मेरा नाम बाहुक है मैं घोड़ों को हांकने तथा उन्हें तरह-तरह की चाले सिखाने का काम करता हूं। घोड़ों की विद्या में मेरे जैसा निपुण इस समय पृथ्वी पर और कोई नहीं है। अर्थ संबंधी तथा अन्य गंभीर समस्याओं पर मै अच्छी सम्मति देता हूं। और रसोई बनाने में भी बहुत  चतुर हूं एवं हस्त कौशल के सभी काम तथा दूसरे भी कठिन काम को में करने की चेष्टा करता हूं। आप मेरी आजीविका का निश्चय करके मुझे रख लीजिए। ऋतु पर्ण ने कहा बाहुक तुम भले आए,। तुम्हारे जिम्मे  यह सभी काम रहेंगे परंतु मैं शीघ्र गामी सवारी को विशेष पसंद करता हूं। इसलिए तुम ऐसा उद्योग करना कि मेरे घोड़ों की चाल तेज हो जाए। तुम्हें अश्वशाला का अध्यक्ष बनाता हूं। तुम्हें हर महीने सोने की 10,000 मोहरे मिला करेगी। इसके अतिरिक्त नल का पुराना सारथी वाष्षृण और जीवल हमेशा तुम्हारे पास उपस्थित रहेंगे ।तुम आनंद से मेरे दरबार में रहो। राजा रितु प्रण से सत्कार पाकर नल बाहुक के रुप  में बाषृण और जीवल के साथ अयोध्या में रहने लगे। राजा नलप्रतिदिन रात को दमयंती का स्मरण करते कहा करते हैं कि हाय हाय दमयंती भूख प्यास से घबराकर थकी मांधी उस मूर्ख का स्मरण करती होगी व न जाने कहां सोती होगी?भला वह अपने जीवन निर्वाह के लिए किसके पास जाती होगी। इसी प्रकार के अनेक बातें सोचते और ऋतुपर्ण के पास रहते कि उन्हें कोई पहचान ना सके।।

जब विदर्भ नरेश भीम को यह समाचार मिला कि मेरे दामाद नल राज्याच्युत होकर मेरी पुत्री के साथ वन में चले गए। तब उन्होंने ब्राह्मणों को बुलवाया और उन्हें बहुत सा धन देकर कहा कि आप लोग पृथ्वी पर सर्वत्र जा जाकर नल दमयंती का पता लगाओ। और उन्हें ढूंढो जो ब्राह्मण यह काम पूरा कर लेगा उसे 1000 गाएं और जागीर दी जाएगी। यदि आप लोग उन्हें ला न सके केवल पता ही लगा पाए तो भी 1000 गाएं दान दी जाएगी ब्राह्मण लोग बड़ी प्रसन्नता से नल दमयंती  का पता लगाने के लिए निकल पड़े।
सुदेव नामक ब्राह्मण नल दमयंती का पता लगाने के लिए चैदी नरेश राजधानी में गया उसने एक दिन राज महल में दमयंती को देख लिया। उस समय राजा के महल में पूण्या वाचन हो रहा था। और दमयंती, सुनंदा एक साथ बैठकर में मंगलकृत्य देख रही थी। सुदेव ब्राह्मण ने दमयंती को देखकर सोचा कि वास्तव में यही भीम नंदनी है। मैंने इसका जैसा रूप पहले देखा था। वैसा ही अभी देख रहा हूं। बड़ा अच्छा हुआ इसे देख लेने से मेरी यात्रा सफल हो गई। सूर्य सुदेश दमयंती के पास गया और बोला विदर्भ नंदनी मैं तुम्हारे भाई का मित्र सुदेव ब्राह्मण हूं। राजा भीम की आज्ञा से तुम्हें ढूंढने के लिए यहां आया हूं। तुम्हारे माता-पिता और भाई सानंद है। तुम्हारे दोनों बच्चे भी विदर्भ देश में सकुशल है। तुम्हरे बिछोह से सभी परिवार के लोग प्राण हीन होकर  जीवन जी रहे हैं। तुम्हें ढूंढने के लिए सैकड़ों ब्राह्मण धरती पर घूम रहे हैं। दमयंती ने ब्राह्मण को पहचान लिया। वह क्रम  से सब कुशल मंगल पूंछने लगी और पूछते पूछते रो पड़ी। सुनंदा दमयंती को बात करते देखकर घबरा गयी। उसने अपनी माता के पास जाकर सब हाल कहा।
राजमाता तुरंत बाहर निकल कर आई और ब्राह्मण के पास जाकर पूछने लगी कि महाराज! यह किसकी पत्नी है?किसकी पुत्री है ?अपने घरवालों से कैसे बिछड़ गई? तुमने इसे पहचान ना कैसे पहचाना? सुदेव ने नल दमयंती का पूरा चरित्र सुनाया और कहा कि जैसे राख में दबी हुई आज गर्मी से जान ली जाती है वैसे इस देवी के सुंदर रूप से मैंने से पहचान लिया। सुनंदा ने अपने हाथों से दमयंती का ललाट धो दिया। जिससे उसकी भौहो के बीच का लाल चिह्न चंद्रमा के समान प्रकट हो गया। ललाट का तिल देखकर सुनंदा और राजमाता दोनों ही रो पड़ी। उन्होंने दो घड़ी तक छाती से चिपका या रखा।राजमाता ने कहा दमयंती! मैंने इस तिल से तुम्हें पहचान लिया कि तुम मेरी बहन की पुत्री हो।  तुम्हारी माता मेरी सगी बहन है।  हम दोनों दशार्व देश के राजा सुदामा की पुत्री है।
तुम्हारा जन्म मेरे पिता के घर ही हुआ था। उस समय मैंने तुम्हें देखा था। जैसे तुम्हारे पिता का घर तुम्हारा है, वैसे यह घर भी तुम्हारा है। यह संपत्ति जैसे मेरी वैसे ही तुम्हारी भी है। दमयंती बहुत प्रसन्न हुई। उसने अपनी मौसी को प्रणाम करके कहा मां तुमने मुझे पहचाना नहीं तो क्या हुआ मैं रही हूं यहां लड़की की  तरह ही, तुमने मेरी अभिलाषाएं पुर्ण की है। तथा मेरी रक्षा की है इसमें मुझे संदेह नहीं कि मैं अब यहां और भी सुख से रहूंगी। परंतु मैं बहुत दिनों से घूम रही हूं, मेरे छोटे-छोटे दो बच्चे, पिताजी के घर अपने पिता के वियोग से दुखी रहते होंगे, न जाने उनकी क्या दशा होगी। आप यदि मेरा हित करना चाहती है। तो मुझे विदर्भ देश में भेजकर मेरी इच्छा पूर्ण कर दीजिए। राजमाता बहुत प्रसन्न हुई ।उन्होंने अपने पुत्र से कहकर पालकी मंगवाई भोजन वस्त्र और बहुत सी वस्तुऐ देखकर एक बड़ी सेना के संरक्षण में दमयंती को विदा कर दिया। विदर्भ देश में दमयंती का बड़ा सत्कार हुआ। दमयंती अपने भाई बच्चे माता-पिता और सखियों से मिली। उसमें देवता और ब्राह्मणों की पूजा की। राजा भीम को अपनी पुत्री के मिलन जाने से बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुदेव नामक ब्राह्मण को 1000 गए और गांव तथा धन देकर विदा किया।।

आगे की कथा भाग 5 में

आचार्य श्री कोशल कुमार शास्त्री

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