जन्म कुंडली के प्रमुख कुयोग

 जन्म कुंडली में बनने वाले प्रमुख कुयोग -:

आज हम ऐसे कुयोगो की चर्चा करने जा रहे हैं। जिनके निर्माण से जातक का जीवन अनेक प्रकार से दुखी होता है तो आइए जानते हैं जन्म कुंडली में बनने वाले प्रमुख कुयोग किस प्रकार बनते है।

१,अवयोग -:

यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में लग्न और लग्नेश पाप ग्रह से युक्त हो अथवा दृष्ट हो तथा लग्नेश 6 8 12 में स्थित हो तो अवयोग का निर्माण होता है। अवयोग में जन्मा जातक शारीरिक मानसिक व चारित्रिक दृष्टि से अच्छा नहीं होता है। क्योंकि ज्योतिष शास्त्रीयो का मानना होता है कि यदि जन्म कुंडली का लग्न और लग्नेश  बलवान हो उस स्थिति में जन्म कुंडली के सभी ग्रह अशुभ होने पर भी जातक का जीवन सुधर जाता है। किंतु लग्न और लग्नेश कमजोर हो और सभी ग्रह  बलवान हो उस स्थिति में भी जातक का जीवन सुधर नहीं पाता है।

२,नि:स्वयोग -:

जन्म कुंडली में दूसरे भाव का स्वामी पाप ग्रह से युक्त या दृष्ट हो या 6 8 12 भाव में स्थित हो, तथा दूसरे भाव में पाप ग्रह विद्यमान हो उस स्थिति मे नि: स्वयोग का निर्माण होता है। अतः नि: स्वयोग से निर्मित जातक अपने जीवन में सभी प्रकार से  दुखी होता है। ऐसे व्यक्ति के पास ना तो धन होता है ना कुटुम परिवार का सुख होता है। उसका धन का उपयोग भी दुसरे लोग ही करते हैं।

३,मृति योग -: 

जन्म कुंडली में यदि तृतीय भाव का स्वामी पाप ग्रह के साथ  6 8 12 भाव में विद्यमान हो तथा तृतीय भवन पाप ग्रह से युक्त अथव दृष्ट हो उस स्थिति में मृति नामक योग का निर्माण होता है। अतः जातक बहुत अधिक परिश्रम करने के बावजूद भी उसके अनुरूप फल नहीं प्राप्त होने कारण  दुखी रहता है। छोटे भाई बहनों के कारण दुख उठाना पड़ता है। पराक्रम हीन होने के कारण अपने को असहाय महसूस करता है।  जीवन में क ई बार ऐसा कदम उठाता है जिस कारण से आजीवन उसे पश्चाताप करना पड़ता है।

४,कुहू योग -:

यदि जन्म कुंडली का चतुर्थ भाव व चतुर्थेश पाप ग्रह से युत या दृष्ट हो तथा चतुर्थ भाव का स्वामी 6,8 ,12 भाव में स्थित हो उस स्थिति में कुंडली में कुहू नामक  कुयोग का निर्माण होता है। जिस जातक की जन्म कुंडली में इस योग का निर्माण होता है वह भवन वाहन माता का सुख इत्यादि से वंचित रहता है। ऐसे जातक को अपने इष्ट मित्रों का भी साथ नहीं प्राप्त होता है और जीवन में दुख आते रहते हैं जिस कारण से उसे अपना पैतृक स्थान भी छोड़कर विचरण करना पड़ता है।

५,पामर योग -:

यदि जन्म कुंडली में पंचम भाव का स्वामी पाप ग्रह से युक्त होकर 6 8 12 भाव में विद्यमान हो और पंचम भाव में पाप ग्रह स्थित हो तो पामर नाम का कु योग बनता है। जिस कारण जातक असत्य बोलने वाला, अनैतिक आचरण करने वाला, व संतान सुख से वंचित रहता है। ऐसे जातक के जीवन में प्रथम तो संतान ही नहीं होती है यदि संतान होती है तो उसे संतान का सुख प्राप्त नहीं हो पाता है। इस प्रकार इस योग में जन्मा जातक दूसरों को ठगने वाला व धर्म कर्म रहित नास्तिक प्रकृति का होता है।

६,हर्ष योग -:

यदि जन्म कुंडली का षष्टम भाव में कोई पाप ग्रह विद्यमान हो और छठे भाव का स्वामी 6,8, 12 भाव में स्थित हो उस स्थिति में हर्ष नामक योग का निर्माण होता है। ऐसा जातक भाग्यवान दृढ शरीर वाला, सुखी, शत्रुओं का मान मर्दन करने वाला, पाप से डरने वाला होता है। ऐसे जातक जीवन में यश को प्राप्त करने वाले और जुआ सट्टा लॉटरी इत्यादि से भी धन प्राप्त करने वाले होते हैं।

७,दुष्कृति योग -:

जन्म कुंडली में यदि सप्तम भाव व सप्तम भाव का स्वामी पाप ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट हो या सप्तम भाव का स्वामी 6,8, 12 भाव में स्थित हो उस स्थिति में दुष्कृति नामक कुयोग का निर्माण होता है।  इस योग के कारण जातक को दांपत्य जीवन में अनेक प्रकार के दुख उठाने पड़ते हैं। पत्नी का  वियोग रहता है। ऐसे जातक की पत्नी या तो जातक को छोड़कर चली जाती है या उसकी मृत्यु हो जाती है।
 जातक को राज  दंड प्राप्त होते हैं। जातक पर स्त्री मे आसक्त होने के कारण दुख उठाता है। जननेंद्रिय संबंधी रोग के कारण भी जातक दुखी रहता है।

८,सरल योग -:

यदि जन्म कुंडली में अष्टम भाव का स्वामी 6 8 12 भाव में स्थित हो तो सरल नामक योग का निर्माण होता है। और इस योग में जन्मा जातक दीर्घायु होता है। अपने परिश्रम के द्वारा सफलता प्राप्त करने वाला तथा शत्रुओं का मान मर्दन करने वाला होता है। ऐसे जातक को ससुराल पक्ष से धन प्राप्ति होती है। अतः यह एक सुयोग माना जाता है।

९,निर्भाग्य योग -:

जन्म कुंडली में यदि नवम भाव का स्वामी 6 8 12 भाव में स्थित हो तथा नवम भाव  या नवमेश पाप ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तो निर्भाग्य नामक कु योग का निर्माण होता है। इस योग के कारण जातक भाग्यहीन होता है। उसे अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुखों का सामना करना पड़ता है। अतः ऐसा जातक धर्म-कर्म से रहित, संत महात्माओं का अनादर करने वाला तथा पैतृक संपत्ति को नष्ट करने वाला बनता है। ऐसे जातक को पिता का सुख नहीं प्राप्त होता है।

१०, दुर्योग -: 

जन्म कुंडली में दशम भाव का स्वामी से 6, 8,12 भाव में स्थित हो, दशम भाव व दशमेश पाप ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तो दूर् योग नामक  कुयोग का निर्माण होता है। इस योग में जन्मे जातक को पूर्ण परिश्रम करने पर भी सफलता प्राप्त नहीं होती है। ऐसा जातक अपने निवास से दूर रहता है। लोगों से द्रोह करने वाला होता है।

११,द्ररिद्र योग -:

जन्म कुंडली में यदि एकादश भाव का स्वामी से 6,8,12 में स्थित हो अथवा एकादश भाव में पाप ग्रह स्थित हो और एकादशेश भी पाप ग्रह से युक्त या दृष्ट होकर 6,8,12 भाव में स्थित हो तो दरिद्र नामक कु योग का निर्माण होता है। इस योग के कारण जातक दरिद्र व कर्जदार होता है। बड़े भाई बहनों से कष्ट पाता है। कान की बीमारी से पीड़ित रहता है। अतः जातक दूसरों के घर काम करने वाला बनता है।

१२,विमल योग -:

यदि जन्म कुंडली में बारहवें भाव का स्वामी 6 8 12 भाव में स्थित हो द्वादश भाव पाप ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तो विमल नामक सुयोग का निर्माण होता है। इस योग में जन्मा जातक कम खर्च करने वाला अधिक आय करने वाला होता है। अतः ऐसा जातक धनवान होने के साथ-साथ उज्जवल कीर्ति वाला बनता है।


विशेष -:

१,भावेश का 6 8 12 में विद्यमान होना
२, भावेश का पाप ग्रह के साथ विद्यमान होना
३, भावेश पर पाप ग्रहों की दृष्टि
४, भाव में पाप ग्रह का बैठना
५, भाव पर पाप ग्रह की दृष्टि

यह पांच कारणों से कुयोगों का निर्माण होता है। और जिस कुयोग में इन 5 तत्वों की जितनी अधिकता होगी वह योग उतना ही अधिक प्रभाव दायक होगा।

यदि जन्म कुंडली में 1,4 ,5, 7 ,9, 10 भाव अति शुभ होते हैं। इन्हें केंद्र त्रिकोण कहा जाता है। यदि इन भावो के स्वामी बल हीन होकर 6 8 12 में स्थित हो जो की जन्मकुंडली के बुरे भाव होते हैं। और 6 8 12 के स्वामी बलवान होकर केंद्र त्रिकोण में स्थित हो तो दूर्योगो को का निर्माण होता है। जो कि जातक के लिए अच्छा नहीं होते है।

अपितु इसके विपरीत 6 8 12 त्रिक भाव के स्वामी बल हीन होकर 6 8 12 भाव में स्थित हो और केंद्र त्रिकोण के भावादि पति बलवान होकर केंद्र त्रिकोण में स्थित हो तो सुयोगो का निर्माण होता है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि 6 8 12 जिन्हें त्रिक भाव कहा जाता है और यह जन्मकुंडली के बुरे भाव होते हैं। इनके स्वामी बलहीन होकर  6 8 12 भाव में स्थित हो तथा केंद्र त्रिकोण के स्वामी 6 8 12 में स्थित नहीं हो कर केंद्र त्रिकोण में स्थित हो तो जातक के लिए उतना ही श्रेष्ठ होता है। क्योंकि विष जितना कम हो और अमृत जितना अधिक  हो उतना ही श्रेष्ठ होता है।



Note -:
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आचार्य श्री कौशल कुमार शास्त्री
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