पक्ष, मास, (अधिक मास) अयन, गोल, विषयक अध्ययन

 पक्ष, मास, अधिक मास, अयन, गोल, विषयक अध्ययन -:


पक्ष -:

जिस रात्रि में सूर्य और चंद्रमा किसी राशि के एक ही अंश पर आ जाते हैं तब वह रात्रि अमावस्या की रात्रि कहलाती है। और अमावस्या की रात्रि सबसे घनी काली रात्रि होती है क्योंकि उस रात्रि में सूर्य और चंद्रमा एक अंश पर होने पर चंद्रमा की किरणें सूर्य की किरणों के आगे लुप्त हो जाती है। अर्थात सूर्य के प्रकाश के सामने चंद्रमा का प्रकाश न के बराबर रह जाता है। इसके बाद अमावस्या से निरंतर बढ़ते हुए क्रम में सूर्य चंद्रमा की गति का अंतराल बढ़ता रहता है और जब उन दोनों की गति का अंतराल 180 अंश पर पहुंच जाता है। तब वह रात्रि पूर्णिमा की रात्रि होती है। इस प्रकार अमावस्या से पूर्णिमा के बीच का 15 दिनात्मक काल शुक्ल पक्ष कहलाता है और पूर्णिमा से अमावस्या तक के 15 दिन का  काल कृष्ण पक्ष कहलाता है। शुक्ल पक्ष में मुख्य रूप से देव कार्य संपन्न किए जाते हैं तथा कृष्ण पक्ष में पित्र कार्य संपादित किए जाते हैं। इस प्रकार प्राय एक पक्ष में 15 दिन होते हैं कभी-कभी तिथि क्षय  होने के कारण 13 दिनों तक भी हो जाता है। इस प्रकार एक पक्ष में दो तिथि क्षय होने पर उस पक्ष में शुभ कार्य वर्जित होते हैं।


मास -:

जैसा कि हम जान चुके हैं कि 2 पक्षों से मिलकर एक मास का निर्माण होता है। मास की गणना सूर्य और चंद्र के आधार पर किया जाता है। सूर्य के आधार पर गणना करने पर उसे सौर मास और चंद्रमा से गणना करने पर चंद्रमास की संज्ञा दी जाती है। चंद्र मास की गणना शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से और सौर मास की गणना मेष संक्रांति से चैत्र आदि 12 मास प्रारंभ होते हैं। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशिष ,पौष, माघ, फाल्गुन इत्यादि बारहमासो का नाम पूर्णिमा को पड़ने वाले नक्षत्र के आधार पर रखा गया है।

प्रत्येक मास में मुख्य रूप से 2 नक्षत्र आते हैं किंतु अश्विन, भाद्रपद और फागुन में तीन तीन नक्षत्र आते हैं।

जैसे -:
चैत्र- चित्रा, स्वाति
 वैशाख - विशाखा, अनुराधा
 ज्येष्ठ - ज्येष्ठा, मूल
आषाढ़ - पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा
श्रावण - श्रवण, घनिष्ठा
भाद्रपद - शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद
अश्विन - रेवती, अश्विनी, भरणी
कार्तिक - कृतिका, रोहिणी

मार्गशीर्ष - मृगशिरा, आर्द्रा
पौष - पुनर्वसु, पुष्य

माघ -- अश्लेषा, मघा
फाल्गुन - पूर्वा फाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त



सौर मास -

सौर मास की गणना सूर्य की सक्रांति के आधार पर किया जाता है अर्थात सूर्य में मेषादि 12 राशियों पर क्रम से परिभ्रमण करता है और एक राशि पर 1 महीने रहता है। इस प्रकार 12 राशियों पर भ्रमण करने में 12 महीनों का समय होता है। इस प्रकार सौर मास 30 दिन और 10 घंटे का होता है।

चन्द्र मास -:

जिस प्रकार से सौर मास का संबंध सूर्यदेव से होता है उसी प्रकार चंद्रमास का संबंध चंद्रदेव से होता है। अमावस्या के बाद की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा चंद्र देव जिस किसी नक्षत्र में प्रवेश करते हैं। प्रतिदिन एक-एक कला के परिमाण से गति करते हुए पूर्णिमा को पूर्ण रूप से प्रकाशित होते हैं। पुनः पूर्णिमा के बाद कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से एक कला क्षीणन होते हुए अमावस्या तक चंद्रदेव पूर्ण अंधकार की मृत अवस्था में आ जाते हैं।

इस प्रकार एक मत से कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तक और दूसरे मत से शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तक का काल चंद्रमास कहलाता है।

चंद्र मास में 29 दिन और 22 घंटे का समय होता है।

अधिक व क्षयमास -:

पंचांग में मासो की गणना चंद्र मास से व वर्ष की गणना सौर मास से की जाती है। 12 चंद्र मासो का एक वर्ष सौर वर्ष से लगभग दश दिन छोटा होता है। इस प्रकार 3 वर्षों में यह अंतर एक चंद्रमास के बराबर हो जाता है। अतः प्रति 3 वर्ष में एक चन्द मास अधिक हो जाता है। और उस बड़े हुए मास को  तेरवा मास, अधिक मास, मलमास, पुरुषोत्तम मास आदि नामों से संबोधित किया जाता है। इस प्रकार जिस मास में सूर्य संक्रांति नहीं होती है। उसे सिद्धांतिक रूप से मलमास व अधिक मास कहा जाता है।

इसके विपरीत जिस चंद्र मास में दो संक्रांतिया पड़ जाए वह  क्षय कहलाता है। और जिस वर्ष क्षयमास आता है उस वर्ष दो अधिक मास आते हैं।  क्षय मास के 3 महीने पहले एक अधिक मास और 3 माह बाद दुसरा अधिक मास आता है। 19 वर्षों के अंतराल में क्षय मास आने की संभावना होती है।


विशेष -:
इस प्रकार सौर मास का मान 365 दिन 15घटी 30 पल 31विपलहोता हैं। तथा चन्द मास का मान 354 दिन 22घटी  1पल 23विपल होता है। अतः स्पष्ट है कि चंद्रवर्ष  सौर वर्ष से 10 दिन 53घटी 20पल7विपल कम होता है। अतः इस क्षती की पूर्ति के लिए तथा चंद्र वर्ष व सौर वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिए प्रति 3 वर्ष में एक अधिक चंद्रमास का तथा एक बार 141वर्षो के बाद और दूसरी बार 19 वर्षों के बाद क्षय वर्ष    की व्यवस्था की गई  है।



ऋतुएं -:

इस प्रकार कालगणना को में एक वर्ष को छ ऋतुओं में विभाजित किया गया है। सौर गणना के अनुसार दो सक्रांति की एक ऋतु होती है। इसी प्रकार दो चंद्र मास की एक ऋतु होती है जैसे -:
सूर्य संक्रांति के अनुसार ऋतु निर्माण -:

मीन,मेष संक्रान्ति में वसन्त ऋतु,
वृषभ, मिथुन संक्रांति में ग्रीष्म ऋतु
कर्क, सिंह संक्रांति में वर्षा ऋतु
कन्या, तुला संक्रांति में शरद ऋतु
वृश्चिक, धनु सक्रांति में हेमंत ऋतु
मकर, कुंभ संक्रांति में शिशीर ऋतु


चन्दमास के अनुसार ऋतुएं -:

चैत्र, वैसाख में वसन्त ऋतु
ज्येष्ठ, आषाढ़ में ग्रीष्म ऋतु
श्रावण, भाद्रपद में वर्षा ऋतु
अश्विनी, कार्तिक में शरद ऋतु

मार्गशीर्ष,पौष में हेमंत ऋतु
माघ, फाल्गुन में शिशीर ऋतु




अयन गोल -:

अयन का शाब्दिक अर्थ चलना होता है अर्थात सूर्य कर्कादि छ राशियों में दक्षिण दिशा की ओर गमन दक्षिणायन  तथा मकर आदि छ राशियों में उत्तर दिशा की ओर गमन उतरायण काल कहलाता है। इस प्रकार दो अयन उत्तरायण और दक्षिणायन होते  है। जिनकी अवधि छः छः माह की होती है। अर्थात 1 वर्ष में 2  अयन होते हैं। उत्तरायण और दक्षिणायन, उत्तरायण काल प्राय 14 जनवरी से प्रारंभ होकर 15 जुलाई तक रहता है और दक्षिणायन 16 जुलाई से प्रारंभ होकर 13 जनवरी तक होता है।
उत्तरायण को देवताओं का दिन व दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि कहा गया है। इसलिए सभी शुभ कार्य उत्तरायण में अति शुभ फलदायक होते हैं। तथा दक्षिणायन में सौम्यता  का अभाव होता है क्योंकि उत्तरायण में सूर्य चंद्रमा बहुत अधिक बलवान होते हैं और दक्षिणायन में सूर्य चंद्र बल हीन होते हैं।



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 आचार्य कोशल कुमार शास्त्री
 वैदिक ज्योतिष शोध संस्थान
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Astrologer aacharya KK Shastri




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